Wednesday, November 10, 2010

दस्तक गुलाबी मौसम की...


जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खींच कर तेरे आँचल के साये को
औंधे पड़े रहें कभी करवट लिये हुए
दिल ढूंढता है फिर वो ही फ़ुर्सत के रात दिन...
-- गुलज़ार

ओस की बूंदों को बींधती सुबह की धूप आजकल अच्छी लगने लगी है... शाम की हवाएँ फिर से सिहराने लगी हैं... गुलाबी सर्दियाँ एक बार फिर दस्तक देने को हैं... ये सर्दियाँ बचपन से ही हमारी फ़ेवरेट रही हैं... कुछ है इन सर्दियों के मौसम में जो बहुत "फैसिनेट" करता आया है हमेशा से ही... वो सुबह के कोहरे से झाँकती पीले गुलाब की नर्म पंखुड़ियाँ... हरी-हरी घास पर चादर से बिछे सफ़ेद नारंगी हरसिंगार के फूल... और उस पर चमकीले मोतियों सी सजीं ओस की शफ्फाफ़ बूँदें... सब कुछ बेहद ख़ूबसूरत लगता है... एकदम "मिस्टिकल" सा... आत्मा तक ठंडक पहुंचाता हुआ...

सुबह-सुबह शॉल लपेटे हुए ओस से सजी घास पर नंगे पैर टहलना और हवा का हौले से आपके गालों को चूमते हुए गुज़रना और फिर आपके बालों में ग़ुम हो जाना... बड़ा प्यारा सा एहसास भर देते हैं आपके भीतर... मीठा-मीठा... कुछ रूमानी सा... सर्दियों की सुबह नीम के पेड़ से छन के आती धूप की महक भी कुछ ऐसी मीठी हो जाती है मानो माँ ने अभी-अभी नन्हें को नहला के जॉनसन्स बेबी पावडर लगाया हो... बिलकुल नर्म मुलायम भीनी सी महक... आपको एकदम तरोताज़ा करती हुई...

सर्दियों के साथ बड़ी सारी यादें जुड़ी हैं बचपन की... जैसे दोपहर को छत पे बैठ कर कॉलोनी की सभी महिलाओं (आंटियों) का मूंगफली खाते हुए गप्पे मारना और हम बच्चों का सारी दोपहर धमा चौकड़ी करना... या फिर शाम को दादी का अलाव जलाना और हम सब भाई बहनों का उसके चारों ओर बैठ कर दादी से भूत और जिन्न वाली कहानी सुनना और फिर डर के मारे वहीं दुबके रहना अम्मा की गोद में... और हाँ उस अलाव में आलू भून के खाना हरी धनिया के नमक के साथ :)

कुछ आदतें हैं जो बचपन से आजतक वैसी की वैसी हैं... जैसे आज भी ऑफिस से वापस जा कर एक ही रजाई में घुस के बैठना भाई के साथ और फिर एक दूसरे को ठन्डे-ठन्डे पैर छुआ के लड़ना... "मम्मी देख लो इसे... ठन्डे पैर लगा रहा है... ओफ़्फ़ो सारी रजाई क्या तुम ही ओढ़ोगे... देखो हमारी तरफ़ से हवा आ रही है... तुम अपनी रजाई उठा के लाओ... नहीं ये मेरी है तुम लाओ जा के अपनी..." कितनी मज़ेदार लड़ाई होती है ना... सोच के ही हँसी आ रही है... :) उस प्यारी सी नोक झोंक का मौसम एक बार फिर आ रहा है...

सर्दियों के बारे में एक चीज़ और हमें बेहद पसंद है... वो है उसकी रहस्यमयिता... धुँध में ढकी छुपी सड़कें कितनी रहस्यमयी सी मालूम होती हैं... ना आगाज़ का पता ना अंजाम का... जाने कहाँ से आती हैं... ना जाने कहाँ को जाना है... बस चले जाती हैं... अनजान मुसाफ़िरों की तरह... हाँ ऐसी धुँध भरी सर्दियों की शाम जब लैम्प-पोस्ट की लाइट बड़ी मुश्किल से धुँध को चीरती हुई धुंधली सी रौशनी बिखेर रही हो... साँस लो तो मुँह से भी धुआँ निकले... ऐसे में हमें आइसक्रीम खाना बेहद पसंद है :)


सब्ज़ पत्ते धूप की ये आग जब पी जाएँगे
उजले फर के कोट पहने हल्के जाड़े आएँगे

गीले-गीले मंदिरों में बाल खोले देवियाँ
सोचती हैं उनके सूरज देवता कब आएँगे

सुर्ख नीले चाँद-तारे दौड़ते हैं बर्फ़ पर
कल हमारी तरह ये भी धुंध में खो जाएँगे

दिन में दफ़्तर की कलम,
मिल की मशीनें सब हैं हम
रात आएगी तो पलकों पे सितारे आएँगे

दिल के इन बागी फ़रिश्तों को सड़क पर जाने दो
बच गए तो शाम तक घर लौटकर आ जाएँगे

-- बशीर बद्र

7 comments:

  1. सर्दियों के बारे में एक चीज़ और हमें बेहद पसंद है... वो है उसकी रहस्यमयिता....

    सर्दी के रहस्यों को समझाने का यह प्रयास भी बेहतरीन रहा...

    हैपी ब्लॉगिंग

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  2. कुछ आदतें हैं जो बचपन से आजतक वैसी की वैसी हैं... जैसे आज भी ऑफिस से वापस जा कर एक ही रजाई में घुस के बैठना भाई के साथ और फिर एक दूसरे को ठन्डे-ठन्डे पैर छुआ के लड़ना... "मम्मी देख लो इसे... ठन्डे पैर लगा रहा है... ओफ़्फ़ो सारी रजाई क्या तुम ही ओढ़ोगे... देखो हमारी तरफ़ से हवा आ रही है... तुम अपनी रजाई उठा के लाओ... नहीं ये मेरी है तुम लाओ जा के अपनी..." कितनी मज़ेदार लड़ाई होती है ना...
    wo chhoti si raaten wo lambi kahani

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  3. क्या क्या याद दिला दिया आपने ऋचा जी...कसम से बहुत अच्छा लगा...
    बहुत बहुत शुक्रिया आपका :)

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  4. wow...some heavenly feelings just touched me when i was reading this....
    nicely written....

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  5. यह मौसम बहुत अच्छा लगता है, न गर्मी का और न सर्दी का बन्धन।

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  6. ठंड से हम भी दो चार हुए जा रहे हैं बस यहाँ ठंड का गुलाबीपन गायब है

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  7. वाह...वाह...वाह
    यह मौसम बहुत अच्छा लगता है
    ..............बहुत पसंद आया

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...