Thursday, January 30, 2014

गुल्ज़ारिश !




"गुलज़ार"... इस नाम ने हमेशा ही फैसिनेट किया है हमें... न सिर्फ़ उनकी लेखनी ने बल्कि उनकी पूरी शख्सियत ने... उनकी आवाज़... उनका हमेशा कलफ़ किया सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहनना... ज़रदोज़ी की हुई उनकी सुनहरी मोजरी... उनका चश्मा होंठों में फंसा के लिखने का अंदाज़... हर बात कुछ हट के कुछ अलग... आम होते हुए भी बहुत ख़ास... इतना क्रेज़ तो शायद आज तक कभी किसी फ़िल्मी हीरो के लिए भी नहीं रहा होगा हमें... जैसा की आम तौर पर लड़कियों को होता है... गुलज़ार साब के प्रति हमारा ये लगाव अब जग ज़ाहिर या यूँ कहूँ कि ब्लॉग ज़ाहिर बात हो चुकी है...

गुलज़ार साब का लिखा बहुत पढ़ा.. इन दिनों उनके बारे में पढ़ रही हूँ.. दो किताबें मंगवाईं हैं पिछले दिनों फ्लिप्कार्ट से.. "In the company of a poet" और "I swallowed the moon"...

In the company of a poet - नसरीन मुन्नी कबीर की गुलज़ार साब से एक लम्बी बातचीत पर आधारित है... इस किताब के पन्नों से गुल्ज़रते हुए लगता है गुलज़ार साब का कोई लम्बा इंटरव्यू चल रहा हो... अमूमन किसी मैगज़ीन में छपा कोई इंटरव्यू हद से हद एक या दो पेज का होता है.. या रेडियो और टीवी इंटरव्यू एक से दो घंटे का... पर यहाँ पूरे २०० पेज लम्बा इंटरव्यू है... पूरी की पूरी किताब !

बचपन से लेकर गुलज़ार साब के स्ट्रगल के दिनों तक, दीना से लेकर दिल्ली तक फिर दिल्ली से लेकर मुंबई तक, उनके उर्दू लिपि में लिखने से लेकर उनके बंगाली प्रेम तक... उनकी पहली पढ़ी हुई किताब से लेकर पहली चुराई हुई किताब तक... "शमा" में छपी उनकी पहली कहानी से लेकर (जिसका मेहेंताना उन्हें महज़ १५ रुपया मिला था) बंदनी के लिए "मोरा गोरा अंग लई ले" लिख कर फिल्मों में आने तक... गीत लिखने से लेकर फिल्मों की कहानी लिखने तक... बाइस्कोप पर सबसे पहली फिल्म सिकंदर देखने से लेकर फ़िल्में निर्देशित करने तक... मुंबई के गैराज में काम करने से लेकर फ़िल्मी दुनिया के स्टॉलवर्ट्स को जानने और उनके साथ काम करने तक... उन्हें जन्म देने वाली माँ से लेकर पालने वाली माँ तक... भाई बहन पिता परिवार... यार दोस्त... राखी, बोस्की से लेकर समय तक.. उनकी ज़िन्दगी के हर एक पहलू को छूती है ये किताब... बहुत कुछ जो जानते थे गुलज़ार साब के बारे में और बहुत कुछ जो कभी नहीं सुना या पढ़ा था कहीं...



किताब का फॉर्मेट भी दिलचस्प है... इंटरव्यू जैसा ही.. सवाल जवाब के अंदाज़ में ही है पूरी बातचीत... ना सिर्फ़ फॉर्मेट में बल्कि कन्टेन्ट में भी ये गुलज़ार साब पर लिखी हुई दूसरी किताबों से अलग है... ये किताब ख़ासतौर पर गुलज़ार साब के बचपन से लेकर फ़िल्मी दुनिया तक के उनके सफ़र पर ज़्यादा रौशनी डालती है...

हमारी दोपहरें आजकल इसी किताब के नाम हैं... हमारे साथ ही ऑफिस आती है ये किताब भी.. और लंच के बाद का आधा घंटा ऑफिस के पास के पार्क में गुलज़ार साब को जानते हुए ही गुज़रता है... और क्या खूब गुज़रता है...


जिस दूसरी किताब का ज़िक्र ऊपर किया है - "I swallowed the moon" उसे सबा महमूद बशीर ने लिखा है... दरअसल सबा ने गुलज़ार साब की शायरी पर शोध यानी की PhD करी है... यूँ तो शोध आम तौर पर नाम से ही हमें बोरिंग लगता है.. पर जब पता चला की किसी ने गुलज़ार साब की शायरी पर पूरी थीसिस लिखी है तो पहला रिएक्शन था "wow !" कितना मज़ा आया होगा ऐसे विषय पर शोध करने में...

ये किताब असल में उस शोध की ही उपज है...

यूँ तो सबा ने बड़ी ही ख़ूबसूरती से इस किताब में गुलज़ार की शायरी की थीम उनके शब्दों और भाषा के चुनाव पर रौशनी डाली है... फिर भी कहीं कहीं थीसिस का हिस्सा होना हावी हो जाता है... अगर आप पूरी तरह से एक सिनेमा एन्थुज़िआस्ट नहीं है तो कहीं कहीं शुरुआती हिस्से में ये आपको बोर कर सकती है... पर जब बात गुलज़ार की शायरी की चलती है तो मन करता है एक के बाद एक पन्ने यूँ ही पढ़ते जाएँ...

किताब में बहुत ही डिटेल में बताया है की किस तरह गुलज़ार अपने शब्दों के ख़ूबसूरत चुनाव से और अपनी इमेजरी से एक के बाद एक ख़ूबसूरत नज़्मे और ग़ज़लें पेंट करते आये हैं... जिस पर हम जैसे पाठक हर बार अपना दिल निसार करते हैं और आह भर के कहते हैं की कोई कैसे इत्ता ख़ूबसूरत सोच और लिख सकता है...

लिखना तो लिखना उनकी तो बातें भी इतनी निराली होती है... अपनी शायरी में अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों के उपयोग को गुलज़ार साब कितनी खूबसूरती से समझाते हैं उसकी एक छोटी सी झलक आपको भी पढ़वाती हूँ...



हमारी रातों का चाँद आजकल इस किताब ने ही निगल रखा है...!

दोनों ही किताबें पढ़ने की ललक इतनी थी की डिसाइड नहीं कर पा रहे थे की पहले किसी पढ़ें और बाद के लिए किसे छोड़ें... तो हार कर ये तरीका निकाला... दिन के एक किताब और रात को दूसरी... दोनों साथ साथ... आधी आधी पढ़ी हैं अब तक... दोस्त लोग पागल कहते हैं हमें... हम भी इनकार नहीं करते... गुलज़ार को जानना है ही ऐसा !




3 comments:

  1. तबियत से जिया गये जीवन की अभिव्यक्ति है गुलज़ार की पंक्तियाँ

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज के शुभ दिन ब्लॉग बुलेटिन के साथ गुलज़ार से गुल्ज़ारियत तक पर शामिल किया गया है....

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...