Thursday, August 15, 2013

प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गये...!


प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गये
आप से फिर तुम हुए फिर तू का उन्वां हो गये


मेहदी हसन साहब ने अपनी रेशमी आवाज़ में ये गाते हुए बेहद गहरी सोच में डाल दिया... क्या यूँ सारे तकल्लुफ़ मिट जाना सही है... क्या थोड़ा तकल्लुफ़, थोड़ी मासूमियत रिश्तों को ज़्यादा खूबसूरत नहीं बनाए रखती ?

किसी भी रिश्ते में दो लोगों कि सोच एक हो ये ज़रूरी नहीं... वो दोनों ही दो अलग व्यक्तित्व होते हैं... अलग सोच अलग शख्सियत के लोग... यही उनकी विशेषता भी होती है और उनका यूँ अलग हो कर भी साथ होना उस रिश्ते की खूबसूरती भी...

एक रिश्ते की शुरुआत में आप अपने साथी कि सारी अच्छी बुरी आदतों को अपनाते हैं... बिना किसी शिकायत... या किसी बात से शिकायत हुई भी तो या तो नज़रंदाज़ कर दिया या प्यार से समझा के चीज़ों को सुलझा लिया... इस बात को ध्यान में रखते हुए कि सामने वाले को बुरा न लगे... फिर जैसे जैसे समय बीतता है आपका रिश्ता परिपक्व होता है... आपसी समझ और नज़दीकी बढ़ती है... और उसके साथ ही वो सारे तकल्लुफ़ भी खत्म होते जाते हैं जो कभी अपने साथी की ख़ुशी के लिये तो कभी उसे "स्पेशल" फील कराने के लिये किये जाते थे...

अब जो भी कहना होता है स्पष्ट, सपाट और साफ़ शब्दों में कहा जाता है... बिना किसी लाग लपेट के... बिना इस बात की फ़िक्र किये कि सामने वाले को शायद इतनी साफ़गोई बुरी भी लग सकती है...

सच बोलने में कोई बुराई नहीं है... किसी भी रिश्ते की नीव ही सच्चाई पे ही टिकी होती है... एक रिश्ते की खूबसूरती ही इसी में है कि आप अपने साथी से कुछ भी और सब कुछ बोल सकते है... हाँ, अगर इस तरह से कहा जाये कि सामने वाले को बुरा न लगे तो क्या ही अच्छा हो...

यूँ  तो समय के साथ रिश्तों में परिपक्वता आना सही भी है और ज़रूरी भी... पर प्रश्न ये है कि किस हद तक... क्या रिश्ते परिपक्व होते हैं तो सामने वाले के लिये आपकी चाह आपकी परवाह कम हो जाती है ? नहीं न... तो फिर उसकी ख़ुशी के लिये अगर कभी उसके मन की ही कर ली जाये तो उसमें क्या हर्ज़ है... ऐसा नहीं करेंगे तो भी वो आपको छोड़ कर नहीं चला जायेगा... वो भी उतना ही समझदार है जितने कि आप... उसे आपकी नियत पर कोई शुबा नहीं है... पर उसे ज़रा सी ख़ुशी दे कर आपका भी तो कुछ नहीं घटेगा...

बात दरअसल यहाँ परिपक्वता की है ही नहीं... शायद इतनी आदत हो जाती है हमें एक दूसरे की... हमारे हक़ का दायरा इतना बढ़ जाता है कि हम सख्त होते चले जाते है... हमारा वो कोमल, सौम्य, नर्म रूप कहीं खो सा जाता है... भावनायें वही हैं अब भी... बस उनकी अभिव्यक्ति या तो कम हो जाती है या उसका तरीका बिलकुल बादल जाता है... तकल्लुफ़ और मासूमियत से एकदम परे...

रिश्तों की खूबसूरती न बचा पाये ऐसी परिपक्वता फिर किस काम की...!

P.S. : ये अभी अभी दिल और दिमाग की उथल पुथल से निकला एक निष्कर्ष मात्र है... आप हमसे असहमत होने का पूरा हक़ रखते हैं...

6 comments:

  1. सुबे सुबे शको शुबा सकेर के बेठ लिए.

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  2. बहुत अच्छी बात कही है, पारदर्शिता आवश्यक है संबंधों में।

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  3. सच! नहीं खोना चाहिये कभी कभी भी कोमल सौम्य व नर्म रूप...
    आपकी उथल पुथल ने निष्कर्ष एकदम सटीक निकला है!

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  4. Sach kah rahee hain...sambandhonme pardarshita ho lekin halka-sa jheena-sa parda bhi zarooree hai.

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  5. कुछ पढने आया था, कुछ सीख कर जा रहा हूँ.. :)

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  6. " प्रेम न खेती ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय राजा-परजा जेहि रुचय शीश देई लै जाय ।""जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहि प्रेम गली अति सॉंकुरी जा में दो न समाहिं ।" कबीर

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...