... उन दिनों सुबहें कितनी जल्दी हुआ करतीं थीं... शामें भी कुछ जल्दी घिर आया करती थीं तब... फूलों की महक भीनी हुआ करती थी और तितलियाँ रंगीन... और इन्द्रधनुष के रंग थोड़े चमकीले, थोड़े गीले हुआ करते थे... आँखों में तैरते ख़्वाबों जैसे... सुबह होते ही चीं-चीं करती गौरैया छत पर आ जाया करतीं थीं, दाना चुगने... उस प्यारी सी आवाज़ से जब नींदें टूटा करती थीं तो बरबस ही एक मुस्कुराहट तैर जाया करती थी होंठों पर... यूँ लगता था जैसे किसी ने बड़े प्यार से गालों को चूम के, बालों पर हौले से हाथ फेरते हुए बोला हो "उठो... देखो कितनी प्यारी सुबह है... इसका स्वागत करो..." ... सच! कितने प्यारे दिन थे वो... बचपन से मासूम... रूहानी एहसास भरे...
कोहरे और धुँध को बींधती हुई धूप जब नीम के पेड़ से छन के आया करती थी छज्जे में तो कितनी मीठी हुआ करती थी... गन्ने के ताज़े ताज़े रस जैसी... ख़ुशबूदार और एकदम मुलायम... दादी की नर्म गोद सी... खुले आँगन में जब दादी अलाव जलाया करती थीं तो सर्दी कैसे फ़ौरन ग़ायब हो जाया करती थी... अब बन्द कमरों में घंटो हीटर के सामने बैठ कर भी नहीं जाती... उस अलाव में कैसे हम सब भाई बहन अपने अपने आलू और शकरकंद छुपा दिया करते थे और बाद में लड़ते थे "तुमने मेरा वाला ले लिये वापस करो..." कितनी मीठी लड़ाई हुआ करती थी... वो मिठास कहाँ मिलती है अब माइक्रोवेव में रोस्टेड आलू और शकरकंद में...
कभी सरसों के पीले पीले खेत में दोनों बाहें फैला के नंगे पैर दौड़े हैं आप ? हम्म... यूँ लगता है मानो पूरी क़ायनात सिमट आयी हो आपके आग़ोश में... कभी महसूस करी है सरसों के फूलों की वो तीखी गंध ? क्या है कोई इम्पोर्टेड परफ्यूम जो उसकी बराबरी कर सकता है कभी ? शायद नहीं... आज भी याद आती हैं गाँव में बीती वो गर्मियों की छुट्टियाँ... सुबह आँख खुलते ही सबसे पहले वो आम के बाग़ में जा के खट्टी-खट्टी कैरियों का नाश्ता करना और फिर घंटों ट्यूब वेल के पानी में खेलना... बचपन और गाँव... दोनों अपने आप में ही ख़ूबसूरत और साथ मिल जाएँ तो यूँ समझिये दुनिया में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत और कुछ भी नहीं...
जाने क्यूँ आज दिल यादों की उन ख़ूबसूरत सी गलियों में फिर भटक रहा है... आज जब कुछ भी पहले सा नहीं है... कुछ भी पहले सा नहीं हो सकता... जी कर रहा है एक बार फिर उस बचपन में, उस गाँव में लौट जाएँ... मिट्टी के चूल्हे में पकी वो सौंधी सी रोटी जो धुएँ की महक को आत्मसात कर के कुछ और सौंधी और मीठी हो जाया करती थी... वो हँसी ठिठोली... वो देवी माँ का मंदिर, वो कमल के फूलों से भरा तालाब... वो गुलमोहर, वो नीम, वो नीम की डाली पे पड़ा लकड़ी के तख्ते वाला झूला... उस पर बैठे हम सब भाई बहन... पींग बढ़ाते हुए... शोर मचाते हुए.. "और तेज़... और तेज़... और तेज़..."
गाँव के इस तेज़ी से बदलते परिवेश पर हाल ही में अजेय जी की एक कविता पढ़ी कविताकोश पर... दिल को छू गई... आप भी पढ़िये...
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
गुज़र गई है एक धूल उड़ाती सड़क
गाँव के ऊपर से
खेतों के बीचों बीच
बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ
लाद ले जाती हैं शहर की मंडी तक
नकदी फसल के साथ
मेरे गाँव के सपने
छोटी छोटी खुशियाँ --
मिट्टी की छतों से
उड़ा ले गया है हेलीकॉप्टर
एक टुकड़ा नरम धूप
सर्दियों की चहल पहल
ऊन कातती औरतें
चिलम लगाते बूढ़े
"छोलो" की मंडलियाँ
और विष-अमृत खेलते बच्चे।
टीन की तिरछी छतों से फिसल कर
ज़िन्दगी
सिमेंटेड मकानों के भीतर कोज़ी हिस्सों में सिमट गई है
रंगीन टी० वी० के
नकली किरदारों में जीती
बनावटी दु:खों में कुढ़ती --
"कहाँ फँस गए हम!
कैसे निकल भागे पहाड़ों के उस पार?"
आए दिन फटती हैं खोपड़ियाँ जवान लड़को की
बहुत दिन हुए मैंने पूरे गाँव को
एक जगह/एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा।
गाँव आकर भूल गया हूँ अपना मकसद
अपने सपनों पर शर्म आती है
मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गाँव
बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
-- अजेय
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
गुज़र गई है एक धूल उड़ाती सड़क
गाँव के ऊपर से
खेतों के बीचों बीच
बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ
लाद ले जाती हैं शहर की मंडी तक
नकदी फसल के साथ
मेरे गाँव के सपने
छोटी छोटी खुशियाँ --
मिट्टी की छतों से
उड़ा ले गया है हेलीकॉप्टर
एक टुकड़ा नरम धूप
सर्दियों की चहल पहल
ऊन कातती औरतें
चिलम लगाते बूढ़े
"छोलो" की मंडलियाँ
और विष-अमृत खेलते बच्चे।
टीन की तिरछी छतों से फिसल कर
ज़िन्दगी
सिमेंटेड मकानों के भीतर कोज़ी हिस्सों में सिमट गई है
रंगीन टी० वी० के
नकली किरदारों में जीती
बनावटी दु:खों में कुढ़ती --
"कहाँ फँस गए हम!
कैसे निकल भागे पहाड़ों के उस पार?"
आए दिन फटती हैं खोपड़ियाँ जवान लड़को की
बहुत दिन हुए मैंने पूरे गाँव को
एक जगह/एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा।
गाँव आकर भूल गया हूँ अपना मकसद
अपने सपनों पर शर्म आती है
मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गाँव
बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
-- अजेय
तरक्क़ी.. सुख-सुविधायें... ऐश-ओ-आराम... आगे बढ़ना... किसे पसंद नहीं होता... पर इस सब के बदले जो क़ीमत चुकानी पढ़ती है... अपने गाँव से, अपने घर से, अपने अपनों से बिछड़ने की... उस टीस को जसवंत सिंह जी की गायी हुई इस ग़ज़ल में बख़ूबी महसूस करा जा सकता है... "वक़्त का ये परिंदा रुका है कहाँ..."
बचपन और गाँव... दोनों अपने आप में ही ख़ूबसूरत और साथ मिल जाएँ तो यूँ समझिये दुनिया में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत और कुछ भी नहीं...
ReplyDeleteVery true... hum bhi apne gaao ko bahut miss karte hain.. achcha representation
Happy Blogging
bhut sundar...purani yaado me kho gaye hum bhi...nice
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ।
ReplyDeleteगुज़रा हुआ ज़माना आता नही दोबारा…………सिर्फ़ इतना ही कह सकती हूँ वो यादे ही रह जातीहैं ।
ReplyDeleteबहुत पसन्द आया
ReplyDeleteहमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
इस तरह की नॉस्टॉल्जिक पोस्टें पढ़ने पर अक्सर दुनिया थोड़ी देर के लिये मुझे बदली सी जान पड़ती है......
ReplyDeleteमेरे मन माफिक पोस्ट है ।
बहुत सुन्दर..अब तो यह सब यादों में ही बाकी है, जिन्हें आपने फिर ताज़ा कर दिया..
ReplyDeleteसच कहूं, मैं तो आपके ब्लॉग पर गाने सुनने आता हूँ....:P
ReplyDeleteसाथ साथ पोस्ट भी पढना हो जाता है....
हा हा हा...
vartman mein ateet kitana sukhdayak lagta hai ...aah !
ReplyDeleteयादों के झरोकों से... बहुत अच्छा लगा. मुझे भी प्रेरित किया. अगली पोस्ट में कुछ कह सकूं.
ReplyDelete"कभी सरसों के पीले पीले खेत में दोनों बाहें फैला के नंगे पैर दौड़े हैं आप ? हम्म... यूँ लगता है मानो पूरी क़ायनात सिमट आयी हो आपके आग़ोश में... कभी महसूस करी है सरसों के फूलों की वो तीखी गंध ? क्या है कोई इम्पोर्टेड परफ्यूम जो उसकी बराबरी कर सकता है कभी ? 'शायद नहीं...' "
ReplyDeleteजी यहाँ सहमत नहीं हूँ आपसे…… यहाँ "शायद नहीं" के बजाये "बिलकुल नहीं" होना चाहिये था :) :)
जाने क्या क्या याद दिला दिया आपने… वो आग में सीधे पके सोन्धे आलू; चने और मटर की झाड़ियों से तोड़ी गयी मीठी फ़लियाँ… गर्मियों की दोपहर तो अक्सर जामुन और इमली के पेड़ पर हीं कटती थी।……
मन में मिठास भरने के लिये अशेष धन्यवाद :)
वह प्राकृतिक आनन्द भुलाकर, कृत्रिमता ओढ़ रहे हैं हम।
ReplyDeleteवाह क्या गृह विरही पोस्ट -क्या क्या न याद आ गया !
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति ..अज्ञेय जी की कविता पढवाने का शुक्रिया ..
ReplyDelete@ शेखर सुमन... अगली बार से पोस्ट के साथ गाना लगाना बन्द... फिर तो सिर्फ़ पोस्ट ही पढनी पड़ेगी... ज़बरदस्ती... :)
ReplyDelete@ रवि जी... शुक्रिया इस ओर ध्यान दिलाने के लिये... दोबारा पढ़ा तो हम ख़ुद भी सहमत नहीं हैं ख़ुद से... यहाँ "शायद नहीं" के बजाये "बिलकुल नहीं" ही होना चाहिये था :)
@ संगीता जी... ये कविता अज्ञेय जी की नहीं अजेय जी की है... हमें लगा था की नाम की समानता की वजह से लोग कन्फ्यूज़ हो जायेंगे इसलिए कविताकोश का लिंक भी दिया है हमने पोस्ट में...
तभी तो मेरा सात साल का बेटा पूछता है ....पापा गाँव कैसा होता है .......
ReplyDeleteन गाँव पहले जैसे रहे ...ना गाँव वाले ......
मिटटी की खुशबु ....अलबत्ता अब भी नथुनों में एक किक देती है
वैसे अब पांच सितारा होटलों में गाँव बसते है......
गाँव कितना खूबसूरत होता है ये मैं अच्छे से महसूस कर सकता हूँ...हालांकि हमारा गाँव भले ही उतना खूबसूरत न लगे, लेकिन वहां की बहुत से बात तो अभी भी दिलों में एकदम ताजा है :)
ReplyDeleteकविता सा लगा आपका लिखा भी :)
और अजेय की ये कविता तो पढ़ चूका हूँ कविताकोश पे कुछ दिन पहले ही
फिर से पढ़ लिया :)
बहूत खूब
ReplyDeleteगाँव तो गाँव है
हम तो 4महीने मॆ एक बार गाँव जरूर जाते है
बचपन और गाँव... दोनों अपने आप में ही ख़ूबसूरत और साथ मिल जाएँ तो यूँ समझिये दुनिया में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत और कुछ भी नहीं...
ReplyDeleteबहुत ही मनमोहक
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