Tuesday, August 3, 2010

दिल तो बच्चा है जी...


लखनऊ कल सुबह से ही चेरापूंजी बना हुआ था... सारा दिन रुक रुक कर बरसात होती रही... और ऐसे मौसम में ऑफिस की जेल जैसी दीवारों के भीतर, मन को बड़ी मुश्किल से समझा बुझा के किसी छोटे बच्चे की मानिंद बैठाया हुआ था... लॉलीपॉप का लालच दे के... की बस थोड़ी देर और फिर यहाँ से रिहा हो के खुली फिज़ा में साँस लेते हुए चलेंगे वापस... मौसम को एन्जॉय करते हुए...

किसी तरह बेमन जैसे-तैसे ऑफिस का काम निपटाया... शाम होते होते बादल एक बार फिर बाँवरे हो उठे... सूरज अंकल को तो खैर सुबह से ही किडनैप कर रखा था उन्होंने... ऊपर से एकदम काले बादल... इतना रूमानी मौसम हो गया था की क्या बतायें... काश की ऐसे में "कोई" साथ होता तो कसम से आज निकल ही जाते लॉन्ग ड्राइव पे... हम्म... ख़्वाहिशें :) ...

हाँ तो उस "जेल" से छूट के चंद क़दम ही आगे बढ़े थे की बरखा रानी फुल मूड में आ गयीं हमसे मिलने... और बस मन मचल गया उन्हें गले लगाने को... अब इतने प्यार से आयी थीं तो इनकार कैसे करते... हमने भी सोचा अब थोड़ा तो भीग ही गये हैं और जब तक गाड़ी रोक के रेनकोट पहनेंगे और ज़्यादा भीग जायेंगे... पर दिमाग़ था की अपनी ही लगा रखी थी... ज़्यादा भीग गये तो, बीमार पड़ गये तो... दिल बेचारा दिमाग़ को समझाने में लगा ही था की इतने में अन्दर छुपा बच्चा भी लॉलीपॉप वॉलीपॉप छोड़-छाड़ के बाहर आ ही गया... छोड़ो यार... घर ही तो जाना है... आज भीगते हुए चलते हैं... :)

बस फिर क्या था... हम और हमारी एक्टिवा चल पड़े मौसम और बारिश से बातें करते हुए... अमूमन ४५ - ५० मिनट लगते हैं ऑफिस से घर आने में... पिछले कुछ दिनों से मन कुछ अच्छा नहीं हो रहा था... तो आज पूरा टाइम था उसे आराम से मनाने बहलाने का... मन का रेडियो जाने कौन कौन से गाने प्ले करता रहा सारे रास्ते... कभी ओल्ड मेलोडीज़... आज मौसम बड़ा बेईमान है... रिमझिम गिरे सावन... मौसम मौसम लवली मौसम... तो कभी गुलज़ार साब ये कहते हुए आ जाते... याद है वो बारिशों के दिन पंचम... और बैकग्राउंड में बजता... कच्चे रंग उतार जाने दो... आ चल डूब के देखें... उफ़... दिल तो बच्चा है जी :)

बारिश कुछ और तेज़ हुई तो रेडियो में बजते गानों ने कॉमर्शियल ब्रेक लिया... और मन की ख़याली फैक्ट्री ने एक ख़याल और प्रड्यूस किया... ये हेलमेट में वाइपर्स क्यूँ नहीं होते... अँधेरा भी कुछ बढ़ गया था... आगे चलती गाड़ियों की लाइट्स और बारिश की बूँदें अब मिल कर हेलमेट के शीशे पर बॉल-डांस कर रही थीं... कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था तो शीशा हटाना पड़ा... अब चेहरे पे बूँदें इस तेज़ी से पड़ रही थीं की मानो ढेर सारी चीटियाँ एक साथ काट रही हों... उहूँ... थोड़ा रूमानी अंदाज़ में कहें तो यूँ लग रहा था मानो बारिश ने बढ़ के अपने आग़ोश में ले लिया हो और प्यार से चूम रही हो और रोम-रोम वो एहसास जज़्ब करता जा रहा हो... इक ठंडक भरा सुकून डायरेक्ट आत्मा तक पहुँच रहा था...

खैर ऑलमोस्ट ५० मिनट बाद ये रूमानी सफ़र ख़त्म हुआ और फाइनली हमने अपने रूमानी ख़यालों और एकसासों के साथ घर के गेट में एंट्री करी...

कट... सीन चेंज... जिरह शुरू... :)

मम्मी जो परेशान सी बाहर बरामदे में बैठी इंतज़ार कर रही थीं देखते ही बोलीं...
- भीग गयीं ?
- नहीं तो... एकदम सूखे हैं... भगवान जी ने वॉटरप्रूफिंग कर के जो भेजा है ऊपर से :)
( अब इतनी बारिश हो रही है, कपड़ों से पानी चू रहा है, ऐसे में क्या लॉजिकल क्वेस्चन है... मम्मी भी ना... पर हँस भी नहीं सकते अभी... बड़ी मजबूरी है )

अगला सवाल, नहीं ऐक्चूअली सवाल ही सवाल, जवाब देने का मौका ही नहीं...
- रेनकोट नहीं ले गयी थी ? पहना क्यूँ नहीं ? ठण्ड लगी ? गाड़ी तेज़ तो नहीं चलाई ? वगैरा वगैरा वगैरा...

फिर जैसे अचानक उन्हें याद आया की वो मेरी मम्मी हैं...

कट... सीन चेंज... ट्रॅन्स्फर्मेशन... अब प्यार बरसना शुरू... :)

इतनी बड़ी हो गयी है भगवान जाने कब अक्ल आएगी इस लड़की को...
पागल हो एकदम...
जाओ जा के जल्दी चेंज करो नहीं तो ठण्ड लग जायेगी... हम अदरक वाली चाय बना देते हैं तब तक... :)

और हम चल देते हैं एक बार फिर गाते हुए... दिल तो बच्चा है जी... :)


चलिए जी फिर मिलते हैं... और जाते जाते गुलज़ार साब को छोड़े जाते हैं आपके पास -


कल सुबह जब बारिश ने आ कर
खिड़की पर दस्तक दी थी
नींद में था मैं - बाहर अभी अँधेरा था !
ये तो कोई वक़्त नहीं था,
उठ कर उससे मिलने का
मैंने पर्दा खींच दिया
गीला गीला इक हवा का झोंका उसने
फूँका मेरे मुँह पर, लेकिन
मेरी "सेन्स ऑफ़ ह्यूमर" भी कुछ नींद में थी
मैंने उठ कर ज़ोर से
खिड़की के पट उस पर भेड़ दिये
और करवट ले कर फिर बिस्तर में डूब गया !
शायद बुरा लगा था उसको
गुस्से में खिड़की के कांच पे
हत्थड़ मार के लौट गयी वो,
दोबारा फिर आयी नहीं
खिड़की पर वो चटख़ा काँच अभी बाक़ी है !

-- गुलज़ार





एक त्रिवेणी भी सुन लीजिये जाते जाते... अभी लिखी.... एकदम लेटेस्ट... ताज़ा :)

बहुत भरा था मन पिछले कुछ दिनों से
बारिशें ओढ़ वो जी भर के रोई कल शब

कुछ नक़ाब जज़्बात भी छुपा लेते हैं

-- ऋचा

20 comments:

  1. बहुत बढ़िया संस्मरण ....बढ़िया प्रस्तुति....

    ReplyDelete
  2. bahut khoob!!!

    aapki post ekdum barish ke pani ki tarah pravahman hai... padhne ke baad main bhi bas yahi soch raha hu ki helmet par wipers kyon nahi hote...

    gulzaar saab ko padhwane ka bhi shukriya

    Happy Blogging

    ReplyDelete
  3. Aapne to apne aalekh se hee hame baarish me bhigo diya!Zukaam ho gaya to aapke paas adrak wali chaay peene pahuch jayenge!

    ReplyDelete
  4. डुबो दिया आपने इस बारिश में हमें भी...कमाल की पोस्ट है...और त्रिवेणी तो क्या कहने :)

    ReplyDelete
  5. रूमानी संस्मरण के साथ रूमानी यात्रा कर आये हैं हम भी ...
    और उसपर गुलज़ार की ग़ज़ल ...
    खिड़की पर वो चटका कांच अभी भी बाकी है ...चटक रहा है कुछ इधर भी
    गीत , त्रिवेणी ...
    बारिशें ओढ़ कर सोयी वो तमाम शब् ...कुछ नकाब जज़्बात भी छिपा लेते हैं ...
    पूरा मौसम भीतर- बाहर का एक साथ साकार कर दिया ..
    शानदार ...!

    ReplyDelete
  6. लीजिये भीग गए हम भी आपकी बरसात में.....अफ़सोस है हम ऑटो के अन्दर थे .....पूरा मजा तो नहीं ले पाए...लेकिन गालों पर बूदो का प्यार से मरना बहुत भाता है दिल को .......भगवान् करे ऐसी मोहब्बत भरी बरसात जिंदगी में बार - बार आयें :-)

    ReplyDelete
  7. एक बरसात देखिये कितने मूड बदल देती है।

    ReplyDelete
  8. माना कि शमा फिरोजा है लेकिन
    मोम के जिश्म में धागे का जिगर जलाता है

    ReplyDelete
  9. बारिश, रूमानी ख़याल और ये अंदाज़ ....
    वैसे त्रिवेणी के तो क्या कहने :)

    ReplyDelete
  10. फोन पर बात हो रही थी ,तो पता चला कि लखनऊ में बारिश हो रही है ,पर इतनी हसीन बारिश हुई ,ये आपके अंदाजे बयां से पता चला ।

    ReplyDelete
  11. अच्छा लेख. "आगे चलती गाड़ियों की लाइट्स और बारिश की बूँदें अब मिल कर हेलमेट के शीशे पर बॉल-डांस कर रही थीं" वाह क्या खूब वर्णन किया है. ये लाइन पढ़ कर तो बरबस ही चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई.

    ReplyDelete
  12. वाह.. क्या समां बंधा है आपने..
    पहली बार कमेन्ट कर रहा हूँ, वैसे अपना मुरीद ही समझिए.. किसी सायलेंट रीडर कि तरह ही पढ़ कर अबकी बार नहीं निकल पाया.. :)

    Awesome..

    ReplyDelete
  13. लेते रहो मज़े बारिशो के...:)हम आपको खुश देख के खुश हो जाते है...

    ReplyDelete
  14. वाह! मुझे भी अपना मुरीद ही समझे :-)

    बारिश ने अभी तक मुम्बई का साथ नही छोडा है.. और कभी कभी मै खुद के साथ ऎसे ही बैठता हू जैसे मै ही गुलजार हू और मै ही पंचम..

    "धुन्ध में ऐसे लग रहे थे हम,
    जैसे दो पौधे पास बैठे हों।
    हम बहुत देर तक वहाँ बैठे,
    उस मुसाफ़िर का ज़िक्र करते रहे,
    जिसको आना था पिछली शब, लेकिन
    उसकी आमद का वक़्त टलता रहा !

    देर तक पटरियों पे बैठे हुए
    ट्रेन का इन्तज़ार करते रहे।
    ट्रेन आयी, न उसका वक़्त हुआ,
    और तुम यूँ ही दो क़दम चल कर,
    धुन्ध पर पाँव रख के चल भी दिये

    मैं अकेला हूँ धुन्ध में पंचम!!"

    p.s. ’कोई’ लिफ़्ट लेने वाला नही मिला भीगी कन्क्रीट की सडको पर अकेला चलता हुआ... :-)

    ReplyDelete
  15. @ महेन्द्र जी... शुक्रिया
    @ आशीष जी... हम तो अब भी सिरीअस्ली सोच रहे हैं की हेलमेट पे वाईपर्स क्यूँ नहीं होते :)
    @ संजय जी... शुक्रिया
    @ क्षमा जी... अदरक वाली चाय तो कभी भी पी जा सकती है... आप आइये तो सही बातों की बारिश में भीग के चाय पियेंगे... :)
    @ अभी जी... ऐसी बारिशों में तो डूब के भी मज़ा आता है :)
    @ वाणी जी... कुछ बारिशें होती ही ऐसी हैं... भीतर- बाहर सब भिगो जाती हैं... एक सार कर जाती हैं...
    @ प्रिया... आज भी कुछ ऐसी ही बारिश आने के आसार हैं... दोबारा मौका मत गवाना :)
    @ रश्मि जी... आपको निशब्द कर दूँ ऐसी गुस्ताखी करने की तो सोच भी नहीं सकती :)
    @ प्रवीण जी... सच कहा एक बरसात ने बहुत से मूड बदल दिये... ऐसी बारिशें रोज़ रोज़ आनी चाहियें... मन ख़ुश रहता है...
    @ कौशल जी... वाह ! ... हज़रत ज़हीन शाहतजी का एक शेर हमें भी याद आ गया...
    सीख ‘ज़हीन’ के दिल से जलना, काहे को हर शम्मा पे जलना
    अपनी आग में खुद जल जाए, तू ऐसा परवाना बन जा
    @ अनिल... ऐसी बारिशें रूमानी कर ही जाती हैं... अब ज़रा हमारा अंदाज़ बदल गया तो इलज़ाम उस बारिश के सर ही जाता है...
    @ अजय जी... बारिशें अक्सर हसीन ही हुआ करती हैं चाहे जहाँ भी हों... हम ही हैं जो उसे एन्जॉय नहीं करते...
    @ काजल जी... शुक्रिया
    @ भावेश जी... शुक्रिया... मुस्कुराहट कायम रहे...
    @ पी. डी... भला हो उस बारिश का... एक सायलेंट रीडर की चुप्पी तो टूटी... :)
    @ डिम्पल... और हम आपको खुश देख के एक बार फिर खुश हो जाते है... :)
    @ पंकज... वाह! एक बारिश दो-दो मुरीद दे गयी... हम ख़ुश हुए :)
    p.s. ’कोई’ लिफ़्ट लेने वाला वाकई नही मिला... हम तो कब से तैयार बैठे थे लिफ्ट देने को... :-)
    @ आशीष... :) :) :) :) :)

    ReplyDelete
  16. आज पहली बार आपका ब्लॉग देखा। बहुत सुंदर लिखा है। लगता ही नहीं कि आप एक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर हो। "आगे चलती गाड़ियों की लाइट्स और बारिश की बूँदें अब मिल कर हेलमेट के शीशे पर बॉल-डांस कर रही थीं" जैसी चंद पंक्तियाँ आपको एक मंझी हुई लेखिका साबित करती हैं। बधाई हो।

    ReplyDelete

दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...