Wednesday, January 6, 2010

यादों की पुरवाई...



सबसे पहले तो आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाएँ... ये साल आप सब के लिये बहुत शुभ हो और ढेरों खुशियाँ ले के आये और आपके अपनों का साथ हमेशा बना रहे यही दुआ है !!!
वक़्त कितनी जल्दी भागता है ना... कहने को बस अभी तो ये नया साल आया है और कब ये ६ दिन पुराना भी हो गया पता ही नहीं चला... आज बैठे बैठे यूँ ही ज़िन्दगी की किताब के कुछ वर्क पलटे तो कुछ धुंधले से चेहरे ज़हन में आये... बचपन के कुछ दोस्त और उनके साथ की गयी ढेरों शरारतें... गर्मियों की दोपहर में वो स्कूल से लौटना और घर के सामने वाले ख़ाली मैदान में लगे शहतूत के पेड़ से तोड़ तोड़ के कच्चे-पक्के शहतूत खाना और फिर पूरी स्कूल यूनिफ़ॉर्म में उसके दाग़ लग जाने पर माँ से डाट खाना :-) सच ! क्या दिन थे वो...
फिर कुछ और वर्क पलटे और कुछ और चेहरे सामने आये... स्कूल-कॉलेज में साथ में पढ़ने वाले वो तमाम साथी... वो दोस्त जिनके बिना शायद कल एक पल भी नहीं कटता था और आज उनमें से जाने कितने दोस्त ऐसे हैं जिनसे अब कोई संपर्क तक नहीं है... पता नहीं कहाँ होंगे... कैसे होंगे... क्या उन्हें भी ऐसे ही कभी हमारी याद आती होगी... क्या पता...
ज़िन्दगी में कुछ बनने की ख़्वाहिश, कुछ कर दिखाने की चाह... नाम, पैसा, दौलत, शोहरत सब कुछ पाने की इक्षा में हम सब कितना आगे बढ़ जाते हैं... इतना की पीछे मुड़ के देखने का भी समय नहीं होता... ये सब पाने की चाह रखना ग़लत है ये नहीं कहूँगी... एक अच्छी ख़ुशहाल ज़िन्दगी के लिये ये सब भी बहुत ज़रूरी है... लेकिन इस सबको हासिल करने की जद्दोजहद में अपने साथियों को, अपने रिश्तों को भूल जाना ये ग़लत है... सफलता के उस अर्श पर अगर आपके अपने ही साथ ना हुए तो ख़ुशियाँ अधूरी ही रह जायेंगी... बेमानी... बेमतलब...
समय के साथ हम तो आगे बढ़ जाते हैं पर पीछे रह जाती है कुछ यादें... अपनों के साथ बिताये कुछ ख़ूबसूरत लम्हों की... हालांकि दोस्त तो सभी ख़ास होते हैं लेकिन हर किसी से आपकी दोस्ती उतनी गहरी उतनी ख़ास नहीं होती... बाकी सबका हालचाल मिलता रहे बस, दिल उतने में ही ख़ुश रहता है पर जब आपका कोई ख़ास दोस्त जिसके बिना शायद आप कुछ पल भी नहीं बिताते, वो दोस्त कुछ समय के लिये भी आपसे दूर जाता है तो उसकी कमी अखरती है... लगता है ज़िन्दगी में कुछ अधूरापन है... जैसे आपका कोई बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा आपसे अलग हो गया है...

ऐसे ही किसी दोस्त को याद कर के गुलज़ार साब ने ये नज़्म लिखी होगी शायद...



मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुँधलाने लगा है अब तख़य्युल में
बदलने लग गया है अब वह सुबह शाम का मामूल
जिसमें तुझसे मिलने का भी एक मामूल शामिल था

तेरे ख़त आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़, को काग़ज़ पे रखके
मैंने चाहा था कि पिन कर लूँ
कि जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में

तेरा बे को दबा कर बात करना
"वाओ" पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम जाता था
बहुत दिन हो गए देखा नहीं
ना ख़त मिला कोई
बहुत दिन हो गए सच्ची
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं

-- गुलज़ार

3 comments:

  1. क्या खूब लिखा है.. गुलज़ार साहब ने भी और आप ने भी
    ज़िंदगी की छोटी लेकिन महत्वपूर्ण चीजों को ख़ूबसूरती के साथ बयान करने का अंदाज निराला है..

    हैपी ब्लॉगिंग

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