Thursday, September 24, 2009

या देवी सर्वभूतेषु

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।


नवरात्र के नौ दिन हम देवी दुर्गा के नौ रूपों की आराधना करते हैं... व्रत, उपवास, फल, फूल और ना जाने क्या क्या... सभी अपनी तरह से देवी को खुश करने में लगे रहते हैं...
नवरात्र के इस पावन पर्व में आज छठा दिन है... आज हम देवी कात्यायनी की आराधना करते हैं... देवी कात्यायनी दुर्गा का वो रूप हैं जो सदा बुराई और छल कपट से लड़ती हैं... उनके चार हाथ हैं दो में अस्त्र होते हैं, एक में कमल का फूल और एक से वो हमें आर्शीवाद देती हैं... बिलकुल आज की स्त्री की तरह, जो प्यार और आशीष देना भी जानती है और बुराई के खिलाफ लड़ना भी...
आज २४ सितम्बर है, और आज "अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस" भी है, पर स्त्री सशक्तिकरण के इस दौर में जहाँ एक ओर महिलायें चाँद तक पहुँच रही हैं वहीं दूसरी ओर इस तथाकथित पुरुषप्रधान समाज में कुछ जगहों पर कन्या भ्रूण हत्या आज भी हो रही है... भगवान के बाद सबसे पूजनीय स्थान संसार में किसी को मिला है तो वो "माँ" है... क्यूंकि वो भी भगवान ही की तरह सृष्टा है, जीवनदायनी है...  और हम उसी की हत्या कर रहे हैं उसे जन्म लेने से पहले ही मार दे रहे हैं... और नौ दिन का दिखावा कर के चाहते हैं की देवी माँ प्रसन्न हो कर हमें आर्शीवाद दें... आप कहिये क्या सच में देवी को प्रसन्न हो कर आर्शीवाद देना चाहिये ऐसे में ?
स्त्री का तिरस्कार आज से नहीं सदियों से होता आ रहा है... कभी वो द्रौपदी बन अपनों के ही हाथों भरी सभा में अपमानित हुई है तो कभी सीता बन अग्नि परीक्षा दी है... आख़िर क्यूँ ? क्या दोष था उसका ?? और क्यूँ कुछ पुरुष कभी पिता, कभी भाई, कभी पति बन उसके समस्त अस्तित्व के ठेकेदार हो जाते हैं... उसे कहाँ जाना चाहिये, क्या पहनना चाहिये, किस से बात करनी चाहिये, किस के साथ उठाना बैठना चाहिये, उसे कितना पढ़ना है और कब शादी करनी है... ये सब उसके लिये कोई और क्यूँ तय करता है... क्यूँ नहीं उसे पढ़ा-लिखा के इस काबिल बनाया जाता की वो अपनी ज़िन्दगी के ये छोटे-बड़े फैसले खुद कर पाए...
समाज कब ये समझेगा की देवी को प्रसन्न करना है तो पहले समाज में महिला को वो स्थान वो इज्ज़त दो जिसकी वो हकदार है... उसके सपनों को पहचानो... उन सपनों में रंग भरने का, उन्हें पूरा करना का मौका दो उन्हें... उन सपनों को मारो मत...
वैसे तो आज सरकार बहुत कुछ कर रही है... महिलाओं और कन्याओं के लिये बहुत सी योजनायें हैं, बहुत से अधिनियम बने हैं पर समस्या ये है की बहुत सी महिलायें ही खुद ही ना तो अपने अधिकारों के बारे में जानती हैं और ना ही इन योजनाओं के बारे में... आज समाज को ज़रुरत है जागरूकता लाने की... अपनी सोच को बदलने की... स्त्री का सम्मान करने की... और जिस दिन ऐसा हुआ ये नौ दिन के उपवास की ज़रुरत नहीं पड़ेगी... देवी स्वयं प्रसन्न हो कर हमें इतना प्यार और आर्शीवाद देंगी की हमसे शायद वो संभाले नहीं संभलेगा...

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता
जहाँ नारियों की पूजा होती है वहीं देवता रमते हैं।

समाज से इज्ज़त, सम्मान और अपना एक मकाम पाने के नारी के इस संघर्ष और पीड़ा को गुलज़ार साब ने क्या खूब पिरोया है अपनी एक नज़्म में, आप भी पढ़िये...

कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं
पाँव में पायल, बाहों में कंगन
गले में हंसली, कमरबंद छल्ले और बिछुए
नाक कान छिदवाये गए हैं
और सेवर ज़ेवर कहते कहते
रीत रिवाज़ की रस्सियों से मैं जकड़ी गई
उफ़ ... कितनी तरह मैं पकड़ी गई
अब छिलने लगे हैं हाथ पाँव
और कितनी खराशें उभरें हैं
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी रसियाँ उतरी हैं

अंग अंग मेरा रूप रंग
मेरे नक्श नैन मेरे बोल बैन
मेरी आवाज़ में कोयल की तारीफ हुयी
मेरी ज़ुल्फ़ साँप मेरी ज़ुल्फ़ रात
ज़ुल्फ़ों में घटा मेरे लब गुलाब
आँखें शराब
गजलें और नज्में कहते कहते
मैं हुस्न और इश्क के अफसानो में
जकड़ी गई, जकड़ी गई
उफ़... कितनी तरह मैं पकड़ी गई

मैं पूछूँ ज़रा, मैं पूछूँ ज़रा
आंखों में शराब दिखे सबको
आकाश नहीं देखा कोई
सावन भादों तो दिखें मगर
क्या दर्द नहीं देखा कोई
फन की झीनी सी चादर में
बुत छील गए उरयानी के
तागा तागा करके पोशाक उतारी गई
मेरे जिस्म पे फन की मश्क हुयी
और आर्ट का ना कहते कहते
संग-ऐ-मर्मर में जकड़ी गई
उफ़... कितनी तरह मैं पकड़ी गई, पकड़ी गई
बतलाये कोई, बतलाये कोई
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं

-- गुलज़ार

3 comments:

  1. आपका आलेख अच्छा लगा और गुलज़ार साहब की रचना ने इसकी खूबसूरती को और बढ़ा दिया.. वक्त के बदलते पहिए पर नज़र डालें तो इस दौरान जितनी तेज़ी से तकनीक बदली है उतनी ही तेज़ रफ्तार सोच की भी रही है। बेटा-बेटी एक समान वाला नारा केवल नारा ही नहीं है.. अधिकतर जगह फलीभूत होता दिखाई भी दे रहा है। हालांकि यह भी सही है कि अभी महिला सशक्तीकरण की दिशा में बहुत से प्रयास बाकी हैं.. हैपी ब्लॉगिंग

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  2. आपने बिलकुल सही लिखा है...जितना सब लोग नवरात्र या पूजा अर्चना के द्वारा स्त्री के सम्मान की बात करते हैं काश कि उतना ही सचमुच स्त्री का सम्मान करें और उसको उसको हक़ दें, बराबरी का हक़....तब कितना अच्छा हो

    गुलज़ार जी की रचना ने सब कुछ कह दिया...सब कुछ

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  3. I think education(legal) and awareness is must for removing such kind of miserable condition of women. ye sab tabhi sambhav hai jab burai ke prati ladne ki samaaj ki nishta ho, soch ho aur sahi disha mein kiya gaya prayaas ho.....Let's hope in future we will be able to reduce this social structure and everybody will have to initiate at one's level.

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...