Monday, September 28, 2009

दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
-- निदा फाज़ली 

नवरात्र के आगमन के साथ ही त्योहारों का मौसम शुरू हो गया है... अभी कल ही नौ दिनों के व्रत, उपवास और कन्या पूजन के साथ ही नवरात्र संपन्न हुए हैं और आज विजयदशमी है... बुराई पर अच्छाई की, झूठ पर सच की,  अहम पर विवेक की विजय का पर्व... और कुछ ही दिनों में दीपावली आएगी और पूरी धरा रौशनी में नहा जायेगी... हर सिम्त सिर्फ रौशनी और जगमगाहट... नए कपड़े, पटाखे, खुशियाँ और मिठाइयाँ... बचपन से ही हम सब बड़े चाव के साथ ये सब त्यौहार मनाते आ रहे हैं... है ना ? सच है आख़िर किसे ये खुशियों से भरे त्यौहार नहीं पसंद होंगे... इनके नाम मात्र से ही सबके चेहरे पर हँसी खिल जाती है... पर इन सब खुशियों के बीच चंद बच्चे ऐसे भी हैं जिनके पास ना तो नए कपड़े हैं, ना ही ये पटाखे और मिठाई खरीदने के पैसे... उनकी ज़िन्दगी में कोई रौशनी नहीं है...
सच पूछिये तो उनकी बेबसी और तमाम सवालों से भरी आखें देख कर कभी कभी ये सब खुशियाँ बड़ी बेमानी, बड़ी बेमतलब सी लगती हैं... क्या फायदा ऐसे दिये का जो किसी की ज़िन्दगी में उजाला ना कर सके... एक तरफ हम कितने पैसे बर्बाद करते हैं पटाखों में, रौशनी में और दूसरी तरफ वो बच्चे हैं जिनको त्यौहार में मिठाई भी नसीब नहीं है... कैसा इन्साफ है ये...
कहते हैं एक अकेला इंसान कुछ नहीं कर सकता पर अगर हम सब मिल कर कुछ करने की ठान लें तो कम से कम कुछ लोगों को कुछ समय के लिए, थोड़ी सी ख़ुशी तो दे ही सकते हैं... आइये हम मिल कर एक प्रण करते हैं कि इस त्योहारों के मौसम में जो पैसा हम अपने कपड़ों, मिठाइयों और पटाखों पर खर्च करने वालें हैं उसमें से थोड़ा सा ही सही, पर बचा कर चंद बेसहारा, अनाथ बच्चों को देंगे और उन्हें भी ये एहसास करायेंगे की त्यौहार सिर्फ हमारा नहीं उनका भी है...
आइये इस दीवाली कुछ बच्चों की ज़िन्दगी में उजाला करते हैं, कुछ पल के लिये ही सही उनके चेहरों को भी मुस्कान से रौशन करते हैं...  आइये इस दीवाली मिल कर दिये की रौशनी को सचमुच कुछ मानी देते हैं... बोलिए देंगे मेरा साथ ?



दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!


बहुत बार आई-गई यह दिवाली
मगर तम जहां था वहीं पर खड़ा है,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफ़न रात का हर चमन पर पड़ा है,
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!


सृजन शान्ति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाये
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा,
कि जब प्यार तलावार से जीत जाये,
घृणा बढ़ रही है, अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!


बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया क़ैद जिसने उसे शक्ति छल से
स्वयं उड़ गया वह धुंआ बन पवन में,
न मेरा-तुम्हारा सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!


मगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा,
नहीं जानते फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अंगारा,
न फिर अग्नि कोई रचे रास इससे
सभी रो रहे आँसुओं को हंसाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!

-- गोपालदास "नीरज"

Thursday, September 24, 2009

या देवी सर्वभूतेषु

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।


नवरात्र के नौ दिन हम देवी दुर्गा के नौ रूपों की आराधना करते हैं... व्रत, उपवास, फल, फूल और ना जाने क्या क्या... सभी अपनी तरह से देवी को खुश करने में लगे रहते हैं...
नवरात्र के इस पावन पर्व में आज छठा दिन है... आज हम देवी कात्यायनी की आराधना करते हैं... देवी कात्यायनी दुर्गा का वो रूप हैं जो सदा बुराई और छल कपट से लड़ती हैं... उनके चार हाथ हैं दो में अस्त्र होते हैं, एक में कमल का फूल और एक से वो हमें आर्शीवाद देती हैं... बिलकुल आज की स्त्री की तरह, जो प्यार और आशीष देना भी जानती है और बुराई के खिलाफ लड़ना भी...
आज २४ सितम्बर है, और आज "अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस" भी है, पर स्त्री सशक्तिकरण के इस दौर में जहाँ एक ओर महिलायें चाँद तक पहुँच रही हैं वहीं दूसरी ओर इस तथाकथित पुरुषप्रधान समाज में कुछ जगहों पर कन्या भ्रूण हत्या आज भी हो रही है... भगवान के बाद सबसे पूजनीय स्थान संसार में किसी को मिला है तो वो "माँ" है... क्यूंकि वो भी भगवान ही की तरह सृष्टा है, जीवनदायनी है...  और हम उसी की हत्या कर रहे हैं उसे जन्म लेने से पहले ही मार दे रहे हैं... और नौ दिन का दिखावा कर के चाहते हैं की देवी माँ प्रसन्न हो कर हमें आर्शीवाद दें... आप कहिये क्या सच में देवी को प्रसन्न हो कर आर्शीवाद देना चाहिये ऐसे में ?
स्त्री का तिरस्कार आज से नहीं सदियों से होता आ रहा है... कभी वो द्रौपदी बन अपनों के ही हाथों भरी सभा में अपमानित हुई है तो कभी सीता बन अग्नि परीक्षा दी है... आख़िर क्यूँ ? क्या दोष था उसका ?? और क्यूँ कुछ पुरुष कभी पिता, कभी भाई, कभी पति बन उसके समस्त अस्तित्व के ठेकेदार हो जाते हैं... उसे कहाँ जाना चाहिये, क्या पहनना चाहिये, किस से बात करनी चाहिये, किस के साथ उठाना बैठना चाहिये, उसे कितना पढ़ना है और कब शादी करनी है... ये सब उसके लिये कोई और क्यूँ तय करता है... क्यूँ नहीं उसे पढ़ा-लिखा के इस काबिल बनाया जाता की वो अपनी ज़िन्दगी के ये छोटे-बड़े फैसले खुद कर पाए...
समाज कब ये समझेगा की देवी को प्रसन्न करना है तो पहले समाज में महिला को वो स्थान वो इज्ज़त दो जिसकी वो हकदार है... उसके सपनों को पहचानो... उन सपनों में रंग भरने का, उन्हें पूरा करना का मौका दो उन्हें... उन सपनों को मारो मत...
वैसे तो आज सरकार बहुत कुछ कर रही है... महिलाओं और कन्याओं के लिये बहुत सी योजनायें हैं, बहुत से अधिनियम बने हैं पर समस्या ये है की बहुत सी महिलायें ही खुद ही ना तो अपने अधिकारों के बारे में जानती हैं और ना ही इन योजनाओं के बारे में... आज समाज को ज़रुरत है जागरूकता लाने की... अपनी सोच को बदलने की... स्त्री का सम्मान करने की... और जिस दिन ऐसा हुआ ये नौ दिन के उपवास की ज़रुरत नहीं पड़ेगी... देवी स्वयं प्रसन्न हो कर हमें इतना प्यार और आर्शीवाद देंगी की हमसे शायद वो संभाले नहीं संभलेगा...

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता
जहाँ नारियों की पूजा होती है वहीं देवता रमते हैं।

समाज से इज्ज़त, सम्मान और अपना एक मकाम पाने के नारी के इस संघर्ष और पीड़ा को गुलज़ार साब ने क्या खूब पिरोया है अपनी एक नज़्म में, आप भी पढ़िये...

कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं
पाँव में पायल, बाहों में कंगन
गले में हंसली, कमरबंद छल्ले और बिछुए
नाक कान छिदवाये गए हैं
और सेवर ज़ेवर कहते कहते
रीत रिवाज़ की रस्सियों से मैं जकड़ी गई
उफ़ ... कितनी तरह मैं पकड़ी गई
अब छिलने लगे हैं हाथ पाँव
और कितनी खराशें उभरें हैं
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी रसियाँ उतरी हैं

अंग अंग मेरा रूप रंग
मेरे नक्श नैन मेरे बोल बैन
मेरी आवाज़ में कोयल की तारीफ हुयी
मेरी ज़ुल्फ़ साँप मेरी ज़ुल्फ़ रात
ज़ुल्फ़ों में घटा मेरे लब गुलाब
आँखें शराब
गजलें और नज्में कहते कहते
मैं हुस्न और इश्क के अफसानो में
जकड़ी गई, जकड़ी गई
उफ़... कितनी तरह मैं पकड़ी गई

मैं पूछूँ ज़रा, मैं पूछूँ ज़रा
आंखों में शराब दिखे सबको
आकाश नहीं देखा कोई
सावन भादों तो दिखें मगर
क्या दर्द नहीं देखा कोई
फन की झीनी सी चादर में
बुत छील गए उरयानी के
तागा तागा करके पोशाक उतारी गई
मेरे जिस्म पे फन की मश्क हुयी
और आर्ट का ना कहते कहते
संग-ऐ-मर्मर में जकड़ी गई
उफ़... कितनी तरह मैं पकड़ी गई, पकड़ी गई
बतलाये कोई, बतलाये कोई
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं

-- गुलज़ार

Monday, September 21, 2009

किताबें

पिछले कुछ दिनों से हमारे शहर लखनऊ में राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा हुआ था... रोज़ अख़बार में पढ़ते थे कि हर बार कि तरह इस बार भी किताबों का बहुत ही अच्छा संग्रह है, पर व्यस्तता के कारण जा नहीं पा रहे थे ... पिछले हफ्ते भी जाने का प्रोग्राम बनाया पर किन्ही कारणों से नहीं जा पाए... पर इस शनिवार अंततः जाना हो ही गया... और सच मानिये किताबों का इतना अच्छा संग्रह कभी कभी ही देखने को मिलता है, कंप्यूटर के इस युग में... कंप्यूटर ने लोगों को किताबों से बहुत दूर कर दिया है... आज इन्टरनेट पर शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिसके बारे में जानकारी उपलब्ध न हो... जिस भी विषय के बारे में जानकारी चाहिये किसी भी सर्च इंजन में डालिए और पलक झपकते ही हज़ारों परिणाम आपके कंप्यूटर स्क्रीन पर आ जाते हैं... है ना आसान... पर आज के इस मशीनी युग ने इंसान को भी अपने जैसा ही बना दिया है... 'सेंसिटिव' कम और 'प्रैक्टिकल' ज़्यादा... लोग किताबों से दूर होते जा रहे हैं... उन्हें लगने लगा है कि कौन घंटो किताबों में सर खपाए, जब वो ही जानकारी वो कुछ पलों में ही हासिल कर सकते हैं...पर शायद उन्हें नहीं पता कि कुछ ही पलों में, बहुत कुछ पाने की चाहत में वो क्या खो रहे हैं...
गुलज़ार साब के हाल ही में प्रकाशित संग्रह "यार जुलाहे..." में एक बहुत ही बेहतरीन नज़्म है जो उन्होंने लोगों के किताबों के प्रति बदलते नज़रिए पर लिखी है कुछ अपने ही अंदाज़ में... उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी...

किताबे झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर...
गुजर जाती है 'कंप्यूटर' के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो कदरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे
वो कदरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वह सारे उधड़े उधड़े हैं
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्जों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे ठूंठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
बहुत सी इस्तलाहें हैं
जो मिटटी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरुक कर डाला
ज़ुबां पर ज़ायका आता था जो सफ़्हे पलटने का
अब उंगली 'क्लिक' करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक़्क़े
किताबें मँगाने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा?
वो शायद अब नही होंगे !

-- गुलज़ार

कदरें - Norms; इस्तलाहें - Terms; मतरुक - Abandon, Reject, Obsolete;
रुक़्क़े - Notes

Tuesday, September 15, 2009

जंग


Jung, ye lafz sunnen me hi kitna talkh kitna bitter lagta hai... ek sihran si daud jaati hai jism me jab bhi kisi jung ki tasweeren kisi news channel pe dekhte hain... chaaron taraf bas bum ke dhamake, dhuen ka gubbar, ghayal sainik, pati ya bete ki shahaadat par behis, besudh si aurten, rote bilakhte bachche jinhen chup karaane waala bhi koi nahin... har simt sirf aur sirf tabaahi ka manzar... phir wo jung chaahe kinhi bhi do mulqon ke beech ho... chaahe koi bhi jeete... par haarti insaaniyat hi hai... khud insaan ke haathon hi qatl ho jaati hai bechaari !
Jung kabhi bhi zarkhez nahi hoti... wo sirf niist o naa buud karna jaanti hai... har fateh ki buniyaad zindagi ki shiqast hoti hai... aisi jeet ka bhala koi kya jashn manaaye...
Saahir Ludhiyaanvi ji ki ek bahot hi dil ko chhu lene waali nazm abhi haal hi me padhi jo unhone jung pe likhi thi, aap bhi padhiye...

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में
अमन-ए-आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूह-ए-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
ज़िन्दगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

-- साहिर लुधियान्वी

मग़रिब : West; मशरिक : East; तामीर : Construction; ज़ीस्त : Life; फ़ाक़ों : Hunger

Monday, September 7, 2009

Love Personified -- Imroz



" ना उम्र की सीमा हो ना जन्म का हो बन्धन
जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन..."

sach hai pyar ko na koi bandhan baandh sakaa hai na hi koi seema seemit kar sakii hai... pyar to aseem hai, shaashwat hai... satya hai... har duniyaavi bandhan se pare sirf pyar hai... ek khoobsoorat ehsaas... aur itna pyaara ki har pyaar karne waale ko apni hi tarah pyaara bana deta hai... par humne aur aapne to bas pyar ke baare me suna aur padha hai par ek shaqs hai jisne sahi maayno me pyar ko jiya hai, har pal har lamha... Imroz... abhi shayad aap unhen pehchaane nahi hain... agar hum is tarah se kahen ki amrita ka imroz to shayad aapko kuchh yaad aaye...
apni last post me humne amrita ji ki ek kavita post kari thi jo unhone imroz ji ke liye likhi thi, ye wahi imroz hain jinki baat hum aaj kar rahe hain...
imroz ji ek bahot hi jaane maane painter aur artist rahe hain... par humesha low profile rehne waala ye shaqs armita ji ke liye apne pyar aur deewaangi ki wajah se charcha me aaya...
amrita ji se unki mulaqaat kaam ke silsile me hi hui thi... jab ek baar amrita ji unse apni ek book ka cover page design karwaane gayi thi... aur bas phir mulaaqaaton ka jo silsila shuru hua to ek itihaas bana gaya...
imroz ji ke baare me jaaniye to vishwaas hi nahi hota ki koi kisi ko itni shiddat se bhi chaah sakta hai aaj ke yug me... wo bhi ye jaante hue ki amrita unhen nahi balki sahir ko pasand karti hain... aisa to aaj tak bas kisson kahaniyon me hi hota aaya tha...
amrita ne imroz me hamesha ek bahot achchhe dost ko dekha aur imroz ne poore dil se ye dosti aur pyaar dono nibhaaye...
imroz aur amrita ke beech shayad koi ruhaani rishta tha... bilkul ek sapne ki tarah... apne 41 saal ke saath me dono me kabhi koi matbhed nahi hua, kisi bhi baat ko lekar... na hi kabhi unhone ek dusre ko I Love You kaha... shayad zaroorat hi nahi thi... dono hi is ehsaas ko sirf jeete the aur mehsoos karte the... ek dusre ki har chhoti badi baaton ka khayaal rakhte the aur ek dusre ke saath khush rehte the...

Here's an excerpt from Umo Trilok ji's book "Amrita-Imroz - A Love Story" :
When Amrita’s body was being consumed by fire one is introduced to a stoic Imroz deeply in love still but detached.
"At the end of the deserted cremation ground, a few people were standing, silently staring at the burning pyre. Away from everybody, alone, standing in a corner, I spotted Imroz. Going close to him and touching his shoulder from behind, I muttered, "Don’t be sad." Somehow I always felt that Imroz would become very sad after Amrita’s death. He turned, and looking at me, said, "Uma, why be sad? What I could not do, Nature did."

Such words of wisdom and love because Amrita's last years were painful for her body and death came to her like a liberator.
ab aise niswaarth pyar ko bhala koi kya naam de...

yun to imroz ji ek chitrakaar the par kuchh nazmen bhi likhi hain unhone amrita ji ke liye... shayad unhi se prerna le kar... unme se hi ek ye bhi hai... Ghosla Ghar... jo unhone tab likhi thi jab amrita ji bahot beemar thi aur apni antim yatra ki taraf badh rahi thi...