किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
-- निदा फाज़ली
नवरात्र के आगमन के साथ ही त्योहारों का मौसम शुरू हो गया है... अभी कल ही नौ दिनों के व्रत, उपवास और कन्या पूजन के साथ ही नवरात्र संपन्न हुए हैं और आज विजयदशमी है... बुराई पर अच्छाई की, झूठ पर सच की, अहम पर विवेक की विजय का पर्व... और कुछ ही दिनों में दीपावली आएगी और पूरी धरा रौशनी में नहा जायेगी... हर सिम्त सिर्फ रौशनी और जगमगाहट... नए कपड़े, पटाखे, खुशियाँ और मिठाइयाँ... बचपन से ही हम सब बड़े चाव के साथ ये सब त्यौहार मनाते आ रहे हैं... है ना ? सच है आख़िर किसे ये खुशियों से भरे त्यौहार नहीं पसंद होंगे... इनके नाम मात्र से ही सबके चेहरे पर हँसी खिल जाती है... पर इन सब खुशियों के बीच चंद बच्चे ऐसे भी हैं जिनके पास ना तो नए कपड़े हैं, ना ही ये पटाखे और मिठाई खरीदने के पैसे... उनकी ज़िन्दगी में कोई रौशनी नहीं है...
सच पूछिये तो उनकी बेबसी और तमाम सवालों से भरी आखें देख कर कभी कभी ये सब खुशियाँ बड़ी बेमानी, बड़ी बेमतलब सी लगती हैं... क्या फायदा ऐसे दिये का जो किसी की ज़िन्दगी में उजाला ना कर सके... एक तरफ हम कितने पैसे बर्बाद करते हैं पटाखों में, रौशनी में और दूसरी तरफ वो बच्चे हैं जिनको त्यौहार में मिठाई भी नसीब नहीं है... कैसा इन्साफ है ये...
कहते हैं एक अकेला इंसान कुछ नहीं कर सकता पर अगर हम सब मिल कर कुछ करने की ठान लें तो कम से कम कुछ लोगों को कुछ समय के लिए, थोड़ी सी ख़ुशी तो दे ही सकते हैं... आइये हम मिल कर एक प्रण करते हैं कि इस त्योहारों के मौसम में जो पैसा हम अपने कपड़ों, मिठाइयों और पटाखों पर खर्च करने वालें हैं उसमें से थोड़ा सा ही सही, पर बचा कर चंद बेसहारा, अनाथ बच्चों को देंगे और उन्हें भी ये एहसास करायेंगे की त्यौहार सिर्फ हमारा नहीं उनका भी है...
आइये इस दीवाली कुछ बच्चों की ज़िन्दगी में उजाला करते हैं, कुछ पल के लिये ही सही उनके चेहरों को भी मुस्कान से रौशन करते हैं... आइये इस दीवाली मिल कर दिये की रौशनी को सचमुच कुछ मानी देते हैं... बोलिए देंगे मेरा साथ ?
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बहुत बार आई-गई यह दिवाली
मगर तम जहां था वहीं पर खड़ा है,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफ़न रात का हर चमन पर पड़ा है,
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
सृजन शान्ति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाये
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा,
कि जब प्यार तलावार से जीत जाये,
घृणा बढ़ रही है, अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया क़ैद जिसने उसे शक्ति छल से
स्वयं उड़ गया वह धुंआ बन पवन में,
न मेरा-तुम्हारा सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
मगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा,
नहीं जानते फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अंगारा,
न फिर अग्नि कोई रचे रास इससे
सभी रो रहे आँसुओं को हंसाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
-- गोपालदास "नीरज"