Monday, August 10, 2009

इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला




aaj aapke saath kuchh bahot khaas aur anootha share karne ja rahi hun... yun to ek baar phir gulzar sa'ab ki hi nazm le kar aayi hun par is baar ekdum juda andaaz ki nazm hai... ise jab pehli baar humne padha to laga ki koi kahani padh rahe hain... wo bhi itni jeevant ki har line ke saath aankhon ke saamne koi scene chal raha ho jaise...

"In Boodhe Pahadon Par, Kuchh Bhi To Nahi Badla"... haan shayad sach hi to hai sadiyon se sab kuchh waise hi hai... wahi pahad, wahi barf, wahi jharne, wahi jungle aur wahi aadamkhor bhediya... jise har baar gaaon waale maar dete hain par wo na jaane kaise phir laut aata hai... puri nazm me yun to sirf pahadon aur wahan ki zindagi ki vyaakhaya hai par agar samjha jaaye to gulzar sa'ab ne bahot gehri baat kahi hai uske madhyam se... wo bhediyaa aakhir hai kya? shayad humaare andar chhupi hui buraayi... aur jab tak wo buraayi ka bhediya humaare andar chhupa rahega uska ant mumkin nahi hai... wo har baar isi tarah se wapas aata rahega aur humen marta rahega...

to leejiye ru-ba-ru hoiye is khoobsoorat nazm se aur haan ek baat aur kehna chahungi jab ise pehli baar padha tha to ye socha bhi nahi tha ki ise gaaya bhi ja sakta hai wo bhi itne behtreen andaaz me... par vishal bharadwaaj ji ne ise apni dhun de kar ke aur suresh wadekar ji ne apni aawaaz se saja kar aur bhi jeevant bana diya hai... ab aur kuchh nahi kahungi... aap nazm aur geet dono ka lutf uthaaiye... hum chalte hain... haan agar aapko bhi pasand aaye to bata zaroor deejiyega...



इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला
सदियों से गिरी बर्फ़ें
और उनपे बरसती हैं
हर साल नई बर्फ़ें
इन बूढ़े पहाड़ों पर....

घर लगते हैं क़ब्रों से
ख़ामोश सफ़ेदी में
कुतबे से दरख़्तों के

ना आब था ना दानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गईं जानें

कुछ वक़्त नहीं गुज़रा नानी ने बताया था
सरसब्ज़ ढलानों पर बसती थी गड़रियों की
और भेड़ों की रेवड़ थे

ऊँचे कोहसारों के
गिरते हुए दामन में
जंगल हैं चनारों के
सब लाल से रहते हैं
जब धूप चमकती है
कुछ और दहकते हैं
हर साल चनारों में
इक आग के लगने से
मरते हैं हज़ारों में !
इन बूढ़े पहाड़ों पर...

चुपचाप अँधेरे में अक्सर उस जंगल में
इक भेड़िया आता था
ले जाता था रेवड़ से
इक भेड़ उठा कर वो
और सुबह को जंगल में
बस खाल पड़ी मिलती।

हर साल उमड़ता है
दरिया पे बारिश में
इक दौरा सा पड़ता है
सब तोड़ के गिराता है
संगलाख़ चट्टानों से
जा सर टकराता है

तारीख़ का कहना है
रहना चट्टानों को
दरियाओं को बहना है
अब की तुग़यानी में
कुछ डूब गए गाँव
कुछ गल गए पानी में
चढ़ती रही कुर्बानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गई जानें

फिर सारे गड़रियों ने
उस भेड़िए को ढूँढ़ा
और मार के लौट आए
उस रात इक जश्न हुआ
अब सुबह को जंगल में
दो और मिली खालें

नानी की अगर माने
तो भेड़िया ज़िन्दा है
जाएँगी अभी जानें
इन बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं बदला...

-- गुलज़ार


4 comments:

  1. समझ नहीं पा रही कि अपनी बात कैसे express करू. No doubt गुलज़ार साब लावाजाब है... यकीन मानो ये नज़्म तुम्हारे description के बिना अधूरी है. बखूबी नज़्म की नब्ज़ को पकडा है ..... पूरी नज़्म यू कहे के आँखों के आगे से गुज़र गई...आँखों देखा कोई मंज़र हो जैसे.... Thanks for sharing such beautiful stuff.

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  2. मजा आ गया ...इस बेहतरीन रचना को पढ़वाने के लिए और सुनवाने के लिए शुक्रिया

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  3. गुलजार जी को पढना अच्छा लगा .....!!

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  4. This is outstanding..... Salute to gulzar sahab

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...