देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ
होता है यूँ भी, रास्ता खुलता नहीं कहीं
जंगल सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ
साहिल की गीली रेत पे बच्चों के खेल सा
हर लम्हा मुझमें बनता, बिखरता हुआ सा कुछ
फुर्सत ने आज घर को सजाया है इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ
धुंधली सी इक याद किसी कब्र का दिया
और, मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ
-- निदा फाज़ली
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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...