Friday, July 5, 2013

वो जिसकी जुबां उर्दू की तरह...!





रफ़्ता रफ़्ता अर्श पे पहुंची है शान-ए-लखनऊ
मिलती जुलती है फ़रिश्तों से ज़बान-ए-लखनऊ
-- शफ़ीक़ लखनवी


अदब और तहज़ीब के शहर में जन्म लेना और बड़ा होना आपके व्यक्तित्व पर ख़ासा असर डालता है... एक आम मध्यम वर्गीय परिवार की बात करें तो बोलना सीखने के साथ ही यहाँ एक अदबी लहज़ा ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाता है आपकी बोली में... यहाँ की भाषा उन कुछ चीज़ों की लिस्ट में सबसे ऊपर है जो हमें हमारे शहर का दीवाना बनाती हैं और उस पर फ़क्र करना भी सिखाती हैं...

हालाँकि अब वो पहले जैसी बात नहीं रही यहाँ की भाषा में भी... अंग्रेजी के पीछे दौड़ती आज की युवा पीढ़ी अपनी मातृ भाषा बोलने में भी शर्म महसूस करती है... तो अदब और तहज़ीब की बात कौन करे... बहरहाल... अभी भी बहुत से ऐसे लोग बचे हैं जिन्होंने आज भी हमारी इस विरासत को सम्भाल रखा है... जिनकी बदौलत ये दुनिया आज भी अदब और आदाब के इस शहर की कायल है... वो लोग जो एक हाथ से बीते कल की डोर थामे हुए हैं और एक हाथ से वर्तमान की...

देखा जाये तो लक्ष्मण की नगरी और नवाबों के इस शहर लखनऊ में कोई एक भाषा नहीं बोली जाती... अवधी, उर्दू और हिंदी का कुछ मिला जुला सा रूप है... और तीन इतनी मीठी भाषाएँ जब आपस में घुल मिल कर एक हो जाएँ तो क्या जादू करती हैं इसका असर आप सिर्फ़ लखनऊ आ कर ही महसूस कर सकते हैं...

अपनी चमक खोती जा रही लखनऊ की तहज़ीब और रवायत को एक बार फिर से संभाल कर उसी अर्श पर पहुंचाने की कवायद में बहुत से स्वयं सेवी संघ आगे आये हैं.. उनमें से ही एक जाना पहचाना नाम है "लखनऊ सोसाइटी"... जो लखनऊ की विरासत, उसकी कला और संस्कृति को एक बार फिर से जीवित करने में एक अहम् भूमिका अदा कर रहे हैं... पिछले दिनों इनकी एक मुहीम "Let's Save Calligraphy" से जुड़ने का मौका मिला...

ग़ालिब और फैज़ को पढ़ने के शौक़ ने यूँ तो थोड़ी बहुत उर्दू और फ़ारसी के अल्फाज़ों की समझ दे दी थी पर उर्दू लिखना और पढ़ना चाह कर भी कभी सीखने का मौका नहीं मिला... तो लखनऊ सोसाइटी की बदौलत हो रहे कैलीग्राफी या ख़त्ताती के इन सेशंस में सबसे ज्यादा फायदा ये हुआ की उर्दू सीखने और समझने का मौका मिला... जो की उम्मीद करती हूँ की इन सेशंस के ख़त्म होने के बाद भी सीखती रहूंगी... ख़त्ताती और तुगराकारी तो खैर सीखा ही...

ख़त्ताती और तुगराकारी को ज़रा और पास से समझने के लिये लखनऊ की कुछ पुरानी इमारते भी देखने गये हम सब... जिसमें हुसैनाबाद स्थित छोटा इमामबाड़ा बेहद ख़ास है... 1838 में अवध के तीसरे नवाब मुहम्मद अली शाह द्वारा बनवाए गये इस इमामबाड़े की ख़ासियत ये है कि इस पूरी इमारत कि बाहरी दीवार पर अरबी में ख़त्ताती और तुगराकारी करी हुई है.. जो अपने आप में बेजोड़ है... दूर से देखने में ये बड़ा ही कलात्मक प्रतीत होता है...

वो डायलॉग तो सुना ही होगा आपने फ़िल्म आँधी के गाने में... "तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं..." के बीच जब संजीव कुमार कहते हैं... "सुनो आरती, ये जो फूलों की बेलें नज़र आती हैं न, दरअसल ये बेलें नहीं हैं अरबी में आयतें लिखी हैं..." कुछ वैसा ही महसूस हुआ उस दिन वो सब देख के... सब जीवंत हो आया था जैसे... खूबसूरत... बेहद खूबसूरत...!

बातों से बात निकलती है तो कैसे कड़ियाँ जुड़ती चली जाती हैं... है न... चलती हूँ अब... और आप सब को छोड़ जाती हूँ गुलज़ार साब की एक बेहद खूबसूरत नज़्म के साथ...

ये कैसा इश्क है उर्दू ज़बां का
मज़ा घुलता है लफ्जों का ज़बां पर
कि जैसे पान में महंगा क़माम घुलता है
नशा आता है उर्दू बोलने में
गिलोरी की तरह हैं मुंह लगी सब इस्तिलाहें
लुत्फ़ देती हैं

हलक़ छूती है उर्दू तो
हलक़ से जैसे मय का घूँट उतरता है !
बड़ी एरिस्टोक्रेसी है ज़बां में
फ़कीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू

अगरचे मानी कम होते हैं और 
अल्फाज़ की इफरात होती है
मगर फिर भी
बलंद आवाज़ पढ़िये तो
बहुत ही मोतबर लगती हैं बातें
कहीं कुछ दूर से कानों में पड़ती है अगर उर्दू
तो लगता है
कि दिन जाड़ों के हैं, खिड़की खुली है
धूप अन्दर आ रही है

अजब है ये ज़बां उर्दू
कभी यूँ ही सफ़र करते
अगर कोई मुसाफिर शेर पढ़ दे मीर-ओ-ग़ालिब का
वो चाहे अजनबी हो
यही लगता है वो मेरे वतन का है
बड़े शाइस्ता लहजे में किसी से उर्दू सुनकर
क्या नहीं लगता -
कि इक तहज़ीब की आवाज़ है उर्दू !

- गुलज़ार