Saturday, August 18, 2012

वो जो शायर है...



कुछ तो ज़रूर है तुम्हारे शब्दों में कि हर वो शख्स जिसने एक बार भूले से भी पढ़ लिया तुम्हें, बकौल तुम्हारे, उसकी आदत बिगड़ ही जाती है... तुम्हारी नज़्में उँगली थामे ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मिल जाती हैं... कभी बचपन के भेस में... कभी यादों के देस में... कभी चाँद पे सवार... कभी बादलों के पार... तुम्हारे अनोखे मेटाफ़र्स को जीने लगते हैं हम... हँसी सौंधी लगने लगती है... नैना ठगने लगते हैं... कभी जगते जादू फूंकती हैं तुम्हारी नज़्में कभी नींदे बंजर कर देती हैं...

कोई कोई दिन तो ऐसा भी आता है कि सुबह से शाम बस तुम्हारे गाने सुनते ही बीत जाता है... क़तरा क़तरा मिलती है क़तरा क़तरा जीने दो... फिर से आइयो बदरा बिदेसी... थोड़ी सी ज़मीं थोड़ा आसमां... तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिक़वा तो नहीं... तुम आ गये हो नूर आ गया है... तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी... ओ माझी रे... ऐ ज़िन्दगी गले लगा ले... दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन... तुम सारा दिन यूँ ही घेरे रहते हो और हम कहते हैं आज कैफ़ियत बड़ी गुल्ज़ाराना है... जलन भी होती है कभी तुमसे... कितने चाहने वाले हैं तुम्हारे... इतनी शिद्दत से परस्तिश करते हैं तुम्हें कि एक नया धर्म ही बना दिया है तुम्हारे चाहने वालों ने - गुल्ज़ारियत !

जानते हो तुम्हारे नाम का एक फोल्डर हर उस कम्प्यूटर, फ़ोन और आईपॉड में बना हुआ है जिसे हम इस्तेमाल करते हैं... और हाँ किसी से कहना नहीं पर हमारा दोस्त ना जलता है तुमसे :) हमारा ही क्या हर उस लड़की का जो तुम्हें पसंद करती है... तुम्हारी नज़्मों में हर इक रिश्ते को जिया है हमने... जब कभी चल गुड्डी चल पक्के जामुन टपकेंगे चिल्लाते हुए रौशन आरा खेत कि जानिब भागते हो तो बचपन का कोई भूला बिसरा दोस्त याद आ जाता है जिसके साथ जाने कितनी ही दोपहरें ऐसी बचकानी हरकतें करते बिताई हैं... जब कहते हो बोस्की बेटी मेरी, चिकनी-सी रेशम की डली तो लगता है जैसे खुद हमारे पापा हमें आवाज़ लगा रहे हों...

बोस्की में तुम्हारी जान बस्ती है ना... जानती हूँ... उसे दो चोटियाँ बना के स्कूल जाना होता था और वो भी एक बराबर कोई छोटी बड़ी नहीं होनी चाहिये... तो तुमने चोटी बनाना सीखा बोस्की के लिये... हर साल उसके जन्मदिन पर ख़ास उसके लिये लिखी कविताओं कि एक किताब उसे गिफ्ट किया करते थे.. बोस्की का पंचतंत्र... और तुम्हारे घर का नाम भी तो बोस्कियाना है ना...

लोगों को शायद नहीं पता कि तुम्हें टेनिस खेलना कितना पसंद है... और आज भी सुबह उठ कर तुम टेनिस ज़रूर खेलते हो... और क्या पसंद है तुम्हें ? बैगन बिलकुल भी नहीं पसंद खाने में :) है ना ? हाँ, कलफ़ किया हुआ सफ़ेद कुर्ता पायजामा बहुत पसंद है तुम्हें, जिसे तुमने अपना सिग्नेचर स्टाइल बना लिया है... कलफ़ भी इतना कड़क कि जाने कितने कुर्ते तो पहनते वक़्त ही शहीद हो गये :) तुम्हारी नज्में भी तुम्हारे कुर्ते कि तरह ही हैं कभी सीधी सपाट चिकनी तो कभी उसकी सलवटों की तरह ही पेचीदा...

जब सुनती हूँ की तुम मीना कुमारी के लिये पूरे रमजान रोज़े रखते थे सिर्फ़ इसलिए कि उनकी तबियत नासाज़ थी और वो रोज़े ना रख पाने कि वजह से बेहद उदास थीं, तो दिल से दुआ निकलती है कि ऐसा दोस्त सबको मिले... और जब कहते हो मैं अकेला हूँ धुँध में पंचम तो जी करता है तुम्हारे दोस्त को कहीं से भी ढूँढ़ के वापस ला दूँ तुम्हारे पास... तुम्हारी और पंचम की क्या कमाल की जोड़ी थी... वो संगीत के साथ एक्सपेरिमेंट करते थे और तुम शब्दों के साथ... कितने गाने तो ऐसे खेल खेल में ही बन जाते थे... तुम्हारा कोई फ्रेज़ पसंद आता उन्हें तो कहते थे इसे इलैबोरेट करो... और करते करते पूरा गाना बन जाता था... तुमने भी तो पंचम के कितने बंगाली गानों की धुनें चुरा कर उस पर अपने बोल लिख दिये...



तुमसे जब बात नहीं होती किसी दिन और तुम ख़ामोश, उदास से हो जाते हो तो जी करता है तुम्हारे गले में बाहें डाल कर गुदगुदा कर पूछूँ तुम्हें कहो यार कैसे हो ?

बरसों पहले जब उर्दू का एक हर्फ़ भी समझ नहीं आता था तो तुमने ग़ालिब को हमसे मिलवाया था अपने सीरिअल के ज़रिये... पंजाबी नहीं आती थी तो तुमने अमृता से मिलवाया उनकी नज़्में पढ़ के... ये तुम्हारी आवाज़ का ही जादू था कि पंजाबी सीखने समझने कि इच्छा हुई... और अब टैगोरे से मिलवाने जा रहे हो उनकी लिखी बंगाली कविताओं का तर्जुमा कर के... इतना कुछ करते रहते हो हम सब के लिये कि जी करता है तुम्हारी पीठ थपथपा दूँ...

तुम शब्दों के जादूगर तो हो ही... पर तुम्हारी फिल्मों में ख़ामोशियाँ भी बोलती हैं ये "कोशिश" के ज़रिये तुमने साबित कर दिया... जहाँ मौन ना सिर्फ़ बोला, उसने लोगों के दिलों को छुआ भी और उन्हें रुलाया भी... कैसे कर पाते हो ऐसा... कैसे इतनी आसानी से समझ पाते हो इतने पेचीदा इन्सानी रिश्तों को...

कितने ग्रेसफुल लगते हो आज भी सफ़ेद कुर्ते, सफ़ेद बालों, पकी हुई दाढ़ी और मोटे फ्रेम के चश्मे में... तुम्हें देखती हूँ तो लगता है कि हमारे बाबा होते तो ऐसे ही दिखते शायद... दिल करता है कभी कि बढ़ कर चरण स्पर्श कर लूँ तुम्हारे... और आशीर्वाद ले लूँ उनकी तरफ़ से... तो कभी दिल करता है सिर पे हाथ फेर के ढेर सारी दुआएँ दूँ तुम्हें... हमेशा स्वस्थ रहो और अपनी नज़्मों और गीतों से अपने चाहने वालों के दिल ऐसे ही गुलज़ार करते रहो सदा...

जन्मदिन बहुत मुबारक़ हो गुलज़ार साब !

(राज्य सभा टी.वी. पर प्रसारित हाल ही में इरफ़ान जी द्वारा लिया गया गुलज़ार साब का इंटरव्यू)

Wednesday, August 15, 2012

मिस यू बाबा !



मैंने कभी उनकी उँगली पकड़ कर चलना नहीं सीखा... कभी तोतली ज़ुबान में उनसे कोई ज़िद नहीं की... उनकी गोद में चढ़ कर कभी चंदा मामा को नहीं देखा... कभी उन्हें घोड़ा बना कर उनकी पीठ पर नहीं बैठी... बहुत कम याद आते हैं वो... या शायद हम याद भी उन्हें ही करते हैं जिनसे कभी मिले होते हैं... ज़्यादा ना सही कम से कम एक बार तो... कभी कभी सोचती हूँ कि कभी मिलती उनसे तो क्या बुलाती उन्हें.. दादाजी, दद्दू या बाबा... हाँ, शायद "बाबा" ही बुलाती...

वो याद तो नहीं आते बहुत पर जब भी किसी छोटे बच्चे को अपने बाबा के साथ हँसता, मुस्कुराता, खेलता हुआ देखती हूँ तो एक अजीब सी क़सक उठती है मन में... जैसे ज़िन्दगी की जिगसॉ पज़ल का एक ज़रूरी हिस्सा खो गया हो कहीं... और उसके बिना वो अधूरी ही रहेगी हमेशा चाहे बाक़ी के सारे हिस्से सही सही जोड़ दिये जाएँ... जैसे अम्मा बाबा से कहानी सुनना हर बचपन का हक़ हो और हमसे वो हक़ छीन लिया हो किसी ने...

आइये आज आपको अपने बाबा से मिलवाती हूँ... उनसे जिनसे ख़ुद मैं भी नहीं मिली कभी... सिर्फ़ सुना है उनके बारे में... और इस तस्वीर में देखा है बस... हमारे घर में बाबा कि बस ये ही एक तस्वीर है और ये भी खींची हुई फोटो नहीं है बल्कि पेंट की हुई तस्वीर है... बचपन से बाबा को इस तस्वीर में ही देखा है बस... स्वर्गीय श्री तुलसी राम गुप्ता... हमारे बाबा... आज जब हम अपना ६६वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं तो बेहद गर्व होता है ये सोच कर कि हमारे बाबा एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे...

बुआ बताती हैं कि उस ज़माने में कांग्रेस कमेटी का दफ़्तर हमारे ही घर में हुआ करता था... आये दिन मीटिंग्स होती थीं... जाने कितनी ही बार जेल भरो आन्दोलन में बाबा जेल गये... महीनों जेल में रहे... कितनी ही बार लाठी चार्ज हुआ... इसी सब के चलते उन्हें पेट की कोई ऐसी बीमारी हो गई थी जिसे समय पर डाइग्नोज़ नहीं किया जा सका और वो हम सब को छोड़ कर चले गये... उस वक़्त पापा सिर्फ़ हाई स्कूल में थे...

बाबा के बारे में जितना भी सुनते हैं पापा और बुआ से उतना ही ज़्यादा उन पर गर्व होता है और उनसे मिलने का मन करता है... आज से तकरीबन एक सदी पहले भी वो कितनी खुली विचारधारा के इन्सान थे... उस वक़्त जब घर की स्त्रियों को घर से बाहर निकलने की भी आज़ादी नहीं थी वो अम्मा को अपने साथ पार्टी की मीटिंग्स में ले जाया करते थे... अपनी बेटियों और बेटों में कभी कोई फ़र्क नहीं किया उन्होंने... सबको हमेशा ख़ूब पढ़ने के लिए प्रेरित किया... बुआ लोगों के लिये भी कहते थे की ये सब हमारे बेटे हैं... और उस ज़माने में भी साड़ी या सलवार कुर्ते के बजाय सब के लिये पैंट शर्ट सिलवाते थे... बुआ बताती हैं गाँव में जहाँ हमारा घर था वहाँ आस पास के लोग अपनी लड़कियों को उन लोगों के साथ खेलने नहीं देते थे ना ही हमारे घर आने देते थे... कहते थे कि इनके पिताजी जेल का पानी पी चुके हैं इनके घर का कुछ मत खाना... हँसी आती है आज उन लोगों की सोच पर... ख़ैर...

आज स्वतंत्रता दिवस पर जाने क्यूँ बाबा की बहुत याद आ रही है... और हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति को दीमक की तरह चाट कर खोखला करते जा रहे भ्रष्टाचार, अराजकता और उन तमाम बुराइयों को देख कर उन सभी लोगों और उनके परिवारों के लिये तकलीफ़ हो रही है जिन्होंने देश को आज़ाद करने के लिये अपने प्राणों की बलि दी... उन हज़ारों, लाखों लोगों की क़ुर्बानी का ये सिला दे रहे हैं हम ?

आज की युवा पीढ़ी के लिये क्या मतलब रह गया है १५ अगस्त का... बस एक और छुट्टी का दिन... अपने मोबाइल में वंदे मातरम् की रिंग टोन लगा लेने का दिन या तिरंगे वाला टैटू लगा कर फेसबुक पर नई प्रोफाइल पिक्चर उपलोड कर लेने का दिन... दोस्तों को देशभक्ति के एस.एम.एस. भेज देने का दिन या बहुत हुआ तो एक पूरा दिन देशभक्ति के गाने सुन लेने का दिन... बस इतना ही ना... देशभक्ति का जज़्बा भी फैशन स्टेटमेंट बनता जा रहा है... सिर्फ़ एक दिखावा...

देशभक्ति ही सीखनी है तो उन सैनिकों से सीखिए जो सालों साल हर मौसम, हर पहर, हज़ारों मुश्किलों से जूझते हुए भी हमारी, आपकी और सबसे बढ़कर अपने देश की, अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिये सीमा पर डटे रहते हैं... जिनके लिये देशभक्ति महज़ २६ जनवरी, १५ अगस्त और २ अक्टूबर को उमड़ने वाला जज़्बा नहीं है... आइये हम भी उन जैसे बनते हैं जिनके लिये देशभक्ति ही उनके जीने का अंदाज़ है...!

जय हिंद... जय हिंद की सेना...!!!