Monday, May 14, 2012

राग पहाड़ी !



बंजारों सा ये मन उड़ते उड़ते जाने कौन शहर किस गली पहुँच जाता है हर रोज़... उसकी परवाज़ पर न तो कोई पहरा है न ही कोई सरहद उसे रोक पायी है कभी... बिना किसी रोक टोक कहीं भी, कभी भी चला जाता है... देखा जाए तो ये मन वो मुसाफ़िर है जिसे किसी मंजिल पर नहीं पहुंचना होता... उसे सिर्फ़ सफ़र करना होता है... भटकना ही जिसकी नियति होती है... वही उसकी प्रकृति भी और वही उसका शौक भी... अनवरत चलते रहने वाले इस सफ़र के दौरान बहुत से लोगों से उसका जुड़ाव होता है... मन मिलता है.. दो पल किसी के साथ ठहरता है, सुस्ताता है और फिर बढ़ चलता है अपने अगले पड़ाव की ओर...

ऐसे ही कुछ नए पुराने चेहरों के बीच से होता हुआ... कुछ जानी पहचानी और कुछ अनजानी गलियों से गुज़रता हुआ... ये मन उड़ चला आज पहाड़ों की ओर... जाने कैसा तो अजीब सा नाता है इन पहाड़ों से मन का... जाने किस जन्म का... जैसे कोई आवाज़ जो आपको पुकारती रहती हो हर पल... जैसे कान्हां की मुरली की धुन और मन राधा हो कर खिंचा चला आता है यहाँ... जैसे किसी भूले बिसरे गीत के बोल जो गूंजा करते हैं देवदार से ढकी इन ख़ूबसूरत वादियों में... जैसे बचपन का बिछड़ा हुआ कोई दोस्त जो लुक्का छिप्पी खेलते हुए दूर निकल आया और किसी चीड़ के पेड़ के पीछे खड़ा आज भी आपका इंतज़ार कर रहा हो कि आप आयें और उसे ढूंढ के जोर से बोलें, "पकड़ लिया... चल अब तेरी बारी..."

कितना सुकून मिलता है यहाँ आ कर... हर सू असीम शान्ति की एक उजली चादर फैली रहती है... ऐसी ख़ामोशी जो अकेले होते हुए भी आपको तन्हाँ महसूस नहीं होने देती... आपको मौका देती है ख़ुद से बात करने का, ख़ुद को समझने का... दिन के उजाले में जो ख़ामोशी आपको आकर्षित करती है, साँझ ढलते ढलते वही ख़ामोशी रहस्यमयी सी हो जाती है... एक अबूझ पहेली सी... देर शाम हुई हलकी बारिश की नमी हवा में महसूस होती है... फ़िज़ा में घुली गीले देवदार और चीड़ों की अनूठी ख़ुश्बू उसे और ज़्यादा रहस्यमयी बना देती है... और इस सब के बीच पेड़ों से छन के आती ठंडी हवा में लिपटी चाँदनी आपको किसी दूसरी ही दुनिया में ले जाती हैं... जहाँ आपका जन्मों का साथी आपका इंतज़ार कर रहा होता है... जुगनुओं की पायल पहने ख़्वाब आपको अपने आग़ोश में ले लेते हैं...


सूरज की पहली किरण के साथ ही पहाड़ों का रूप जैसे बदल सा जाता है... बर्फ़ से ढकी शफ्फाक़ चोटियाँ चाँदी सी चमक उठती हैं... मन एक बार फिर मचल जाता है बच्चों की तरह उस पर फिसलने को... कुछ दूर फिसलता हुआ आता है और फिर अचानक उड़ चलता है बादलों पर सवार होकर जंगल की सैर करने... वहाँ से नीचे देखो तो जहाँ तक नज़र जाती है सिर्फ़ हरा भरा जंगल दिखता है... अंतहीन... जैसे धरती सिमट कर बस इतनी सी हो गयी हो... इस हरियाली के परे कुछ भी नहीं... जंगल में गुलांची भरते हिरन और ख़रगोश दिखते हैं... दूर एक झरना जो बहुत शोर मचाता हुआ काफ़ी ऊँचाई से गिर रहा है... एक झील भी... और उसके एक सिरे पर किसी पहाड़ी देवी का मन्दिर भी... बादल उसी झील में उतरते हैं... जैसे वो भी देवी के दर्शन को आये हों... शाम होने वाली है... झील दियों की टिमटिमाहट से रौशन हो गयी है... मंजीरे और घंटियों की आवाज़ के बीच मन संध्या आरती में खो जाता है... कहता है आज यहीं बस जाओ... यहीं... इसी मन्दिर की सीढ़ियों पर... कल किसी और देस चलेंगे.....!