Thursday, November 3, 2011

प्यार भर देता है उड़ने की तमन्ना दिल में और मेरे पंख भी पत्थर के वो कर देता है...


"प्यार"... दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत एहसास... अपने नाम जितना ही प्यारा... कहते हैं इन्सान को ज़िन्दगी में एक बार प्यार ज़रूर करना चाहिये... प्यार इन्सान को बहुत अच्छा बना देता है... जिसे आप प्यार करते हैं उसके लिये जीना सिखा देता है और बेख़ौफ़ हो के मरना भी... जब आप किसी के प्यार में होते हैं तो सारी दुनिया किसी परी-कथा सी हो जाती है... जन्नत जैसी !

शुरू शुरू में प्यार किसी पहाड़ी नदी सा चंचल होता है... अल्हड़ और गतिशील... अपनी राह ख़ुद बनता हुआ... अपने रास्ते में आने वाली हर मुश्किल हर बाधा को अपने ही साथ बहा ले जाता हुआ... अच्छा बुरा, सही ग़लत... बिना कुछ सोचे समझे हम बस बहते चले जाते हैं उसके वेग में... सोच के वैसे भी कब किया जाता है प्यार... वो तो बस हो जाता है... सब अच्छा सब सही... प्यार में कुछ भी बुरा या ग़लत कब होता है... वो तो बिलकुल एक नन्हे बच्चे के समान होता है... मासूम और निश्छल... वो चंचल या अल्हड़ भले ही हो पर बुरा या ग़लत नहीं हो सकता... बच्चे को कब सही ग़लत का ज्ञान होता है...

समय बीतता है... उम्र का एक और पड़ाव आता है... प्यार में भी ठहराव आता है... अब वो पहले सा वेग नहीं रहता... जैसे मैदानी इलाके में आकर नदी का आवेग भी शान्त हो जाता है... एक स्थिरता आ जाती है... पर ध्यान से देखिये तो उसका फैलाव बढ़ जाता है और गहराव भी... अब आप उसमें डूब तो सकते हैं बह नहीं सकते... दिमाग़ कुछ कुछ दिल पे हावी होने कि कोशिश करता रहता है जब कब... तर्क वितर्क भी अपने पाँव पसारने लगते हैं मौका पाते ही... ज़्यादातर तो दिमाग़ हार ही जाता है ये लड़ाई... पर दिल तो दिल ठहरा... कभी कभार पसीज ही जाता है... दिमाग़ को भी एक लड़ाई जीत कर ख़ुद पे इतराने का मौका दे देता है...

दिल और दिमाग़ की ये जंग यूँ ही चला करती है... रही सही कसर परिस्थितियां पूरी कर देती हैं... कुछ भी अब पहला सा नहीं रहता... समय निरंतर बीतता रहता है... नदी भी धीरे धीरे बहते हुए अपने गंतव्य कि ओर बढ़ती रहती है... उसे एक दिन सागर में ही मिल जाना है... उसकी यात्रा का यही अंत है... पर प्यार... उसका क्या कोई अंत होता है कभी ? शायद नहीं... वो बीते लम्हों की यादें बन कर ठहर जाता है हमारे ही भीतर...

ये जो साग़र कि लहरें होती हैं ना... दरअसल ये वो सारे बीते हुए खुशनुमां पल होते हैं... नदी के शुरुआती दिनों का वेग जो लहरें बन जाता है... जाने कैसी ज़िद होती है फिर से वापस लौटने की... उन बीते हुए दिनों को फिर से एक बार जीने की... ये जानते हुए भी कि यात्रा अब ख़त्म हो चुकी... गुज़रा वक़्त दोबारा नहीं आएगा... फिर भी... यादें बन कर लहरें बार बार साहिल तक आती हैं... जाने किस तलाश में... ख़ाली हाथ वापस जाती हैं... पर हारती नहीं... थकती नहीं... शायद यही प्यार है... कभी ना थकने वाला... कभी ना हारने वाला...



भटकती फिरती हूँ
बंजारों सी
हर रोज़
सुबह शाम
तुम्हारी तलाश में
जाने किस घड़ी
तुम मिल जाओ
फिर से
उम्र के किसी
अनजान मोड़ पे
तुम्हारी यादों का इक घना जंगल
बसा है मेरे भीतर कहीं...

-- ऋचा