सुबहें अब पहले सी नहीं होतीं
कोई बाहों में भर के अब नहीं उठाता
सूरज बहुत देर से निकलता है
दिन के दूसरे या तीसरे पहर
नींद भी देर से खुलती है
फिर भी न जाने क्यूँ
एक अजीब सी सुस्ती तारी रहती है
सारा दिन
वो शामें अब नहीं आतीं
के जिनके इंतज़ार में
दोपहरें उड़ती फिरतीं थीं
लम्हें पलकें बिछाते थे
अफ़सुर्दा आसमां से अब
पहले सी चाँदनी नहीं बरसती
चाँद एक कोने में उदास पड़ा रहता है
तारे उसे नज़र भर देखने को तरस जाते हैं
कोई जुम्बिश नहीं होती अब
ख़्यालों में
ना कोई ख़्वाब ही करवट लेता है
नींद की चादर तले
ये ग्रहों ने कैसी चाल बदली है
कि दिन-रात का सारा
हिसाब बिगड़ गया
कुछ भी अपनी जगह अब नहीं रहा
एक बार आओ मिल के
ज़िन्दगी का बहीखाता जांच लें
कि कुछ किश्तें ज़िन्दगी की ग़ायब हैं
या शायद खाते में चढ़ाना भूल गये हम...
-- ऋचा